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विश्वासों, सभी अंधविश्वासों को 'न' कह सकते थे। जो विश्वास करने की सुविधा को इनकार कर सकते थे, और जो स्वयं के अंतर्तम अस्तित्व की गहनतम खोज में जा सकते थे।
यह एक बड़ा उत्तरदायित्व है। नास्तिक होना बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है, क्योंकि जब परमात्मा नहीं है तो इस विराट संसार में तुम अकेले हो जाते हो। जब परमात्मा नहीं है, तो व्यक्ति इतना अकेला हो जाता है कि फिर पकड़ने को कोई खूटी, कोई सहारा नहीं रह जाता है। तब बड़े साहस की जरूरत होती है, और व्यक्ति को स्वयं में ही वह साहस और ऊष्मा निर्मित करनी होती है। यही योग का पूरा का पूरा सार है अपने ही अस्तित्व से ऊष्मा का निर्माण करना। अस्तित्व तो एकदम तटस्थ है, निरपेक्ष है। कोई काल्पनिक परमात्मा ऊष्मा नहीं दे सकता। तुम केवल स्वप्न देखते हो। संभव है इससे इच्छा पूरी होती मालूम होती है, लेकिन वह सत्य नहीं होती। और अकेले रहकर सत्य पर डटे रहना ज्यादा बेहतर है, बजाए असत्य के साथ रहकर ऊष्मा अनुभव करने के।
योग का कहना है कि इस सत्य को जान लो कि तुम अकेले हो। तुम्हें जन्म मिला है, अब तुम्हें इसमें से कोई अर्थ निर्मित करना है। अर्थवत्ता पहले से ही
पश्चिम के अस्तित्ववादी जो कहते हैं, उसके साथ पतंजलि पूरी तरह से राजी होंगे। पश्चिम के अस्तित्ववादी कहते हैं, अस्तित्व सार -तत्व से भी पहले घटित होता है।
मुझे इसकी व्याख्या करने दो।
एक चट्टान है। चट्टान को मूलभूत तत्व मिला हुआ है, वह मिला ही होता है। उसका अस्तित्व उसका मूलभूत तत्व है। चट्टान का कोई विकास नहीं होगा, वह तो वैसी ही है जैसी कि हो सकती है। लेकिन मनुष्य कुछ अलग है मनुष्य जन्म लेता है -वह अपने अस्तित्व के साथ जन्म लेता है, लेकिन सार-तत्व अभी भी उसे दिया नहीं गया है। वह रिक्तता की भांति आता है। अब उसे वह रिक्तता स्वयं अपने प्रयास के द्वारा आपूरित करनी है। उसे अपने जीवन में अर्थ निर्मित करना है? उसे अंधकार में टटोलना है, उसे यह खोज करनी है कि जीवन का अर्थ क्या है। उसे इसे खोजना है, इसके लिए उसे सजनशील होना है। शरीर तो मिल गया है, लेकिन अर्थ को निर्मित करना है -और क्षणक्षण जिस ढंग से तुम जीते हो, तुम स्वयं की अर्थवत्ता निर्मित करते जाते हो। अगर जीवन की उस अर्थवता को निर्मित नहीं करते हो तो तुम उसे उपलब्ध न कर पाओगे।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं, 'कृपया हमें बताएं कि जीवन का अर्थ क्या है?' जैसे कि जीवन का अर्थ कहीं और छिपा है।
जीवन का अर्थ दिया नहीं जा सकता, तुम्हें उसे निर्मित करना होगा। और यह सुंदर है। अगर जीवन का अर्थ पहले से ही मिला होता, तो मनुष्य चट्टान की भांति हो जाता। तब विकसित होने की कोई संभावना ही न रहती, न ही खोज की कोई संभावना होती, और न ही जोखम उठाने की कोई संभावना