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एक वोट तो नसरुद्दीन का अपना, एक उसकी पत्नी का और फिर तीसरा वोट कहां से आया? ईर्ष्यालु मन ईर्ष्या की भाषा में ही सोचता है। पजेसिव मन पजेशन की भाषा में ही सोचता है। क्रोधी मन क्रोध की भाषा में ही सोचता है।
जरा यहूदी परमात्मा की ओर देखो। वह उतना ही पजेसिव है जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। वह उतना ही अहंकारी है जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। वह उतना ही बदले की भावना से भरा हुआ है जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। उसमें कुछ भी दिव्यता मालूम नहीं होती है। वह परमात्मा की अपेक्षा शैतान अधिक मालूम होता है। ईदन के बगीचे से अदम के निकाल दिए जाने की पौराणिक कथा अदम के बारे में कुछ अधिक नहीं कहती है, बल्कि वह परमात्मा के बारे में ही अधिक कहती है। क्योंकि अदम ने आज्ञा नहीं मानी' –यह किस तरह का परमात्मा है जो इतनी छोटी
सी अवज्ञा को सहन नहीं कर सका? यह परमात्मा ही असहनशील है, जो इतनी सी स्वतंत्रता को बर्दाश्त नहीं कर सकता है? ऐसा परमात्मा गुलामों का मालिक तो हो सकता है, लेकिन वह परमात्मा नहीं हो सकता है।
वस्तुत: अदम का पाप क्या था? कि उसे जिज्ञासा थी, उत्सुकता थी, और कुछ भी तो नहीं। क्योंकि परमात्मा ने उससे कहा था, 'इस वृक्ष का फल मत खाना। यह ज्ञान का वृक्ष है।' और इसी कारण अदम को जिज्ञासा जगी। यह स्वाभाविक और मनुष्य-मन के अनुरूप है। इसके विपरीत कुछ और सोचना असंभव है। और इतनी छोटी सी बात को पाप कैसे कहा जा सकता है?
और विज्ञान की खोज का पूरा आधार ही पहले जिज्ञासा और फिर खोज है। फिर तो सभी वैज्ञानिक पापी हैं। फिर तो पतंजलि, बुध, जरथुस्त्र सभी पापी हैं, क्योंकि ये लोग सत्य क्या है, जीवन क्या है यह जानने के लिए अत्यधिक जिज्ञास थे, ये लोग सभी अदम हैं।
लेकिन यहूदी परमात्मा यह बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकता था, वह क्रोध से भर गया। उसने अदम को बगीचे से बाहर निकाल दिया यह सब से बड़ा पाप था।
जिज्ञासा पाप है? अज्ञात को जानना क्या पाप है? तब तो सत्य को खोजना भी पाप है। तब तो आशा का उल्लंघन करना, विद्रोही, बगावती होना पाप है? फिर तो सभी धार्मिक व्यक्ति पापी हैं, क्योंकि वे सभी विद्रोही और बगावती हैं।
नहीं, इसका परमात्मा के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसकी यहूदी मन के साथ संबंध है, उस संकीर्ण मन के साथ जो परमात्मा के संबंध में अपनी ही धारणाओं के अनुसार सोच –विचार करता है, अपनी ही धारणाओं के अनुसार परमात्मा का निर्माण करता है।