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________________ लेकिन यही तो सभी की हालत है। जिस आदमी से तुम सुबह प्रेम करते हो, शाम को उसी से घृणा करने लगते हो। सुबह जिस आदमी से घृणा करते हो, शाम को उसी आदमी से प्रेम करने लगते हो। स्त्री या पुरुष जो एक दिन सुंदर मालूम होता था, आज सुंदर नहीं मालूम होता है। यही है इमरजेंसी केस, यही है संकट की घड़ी। और इसी तरह से तुम जीए चले जाते हो। बहते हुए लकड़ी के टुकड़े की तरह, जिधर हवा उसे ले जाती है, वह उधर ही चला जाता है। हवा का रुख बदलता है, लकड़ी के टुकड़े का रुख भी बदल जाता है। ठीक ऐसे ही तुम्हारे विचार बदलते हैं, तुम बदल जाते हो। तुम्हारे पास अपनी कोई चेतना, अपनी कोई आत्मा नहीं है। गर्जिएफ अपने शिष्यों से कहा करता था, 'पहले आत्मवान बनो, क्योंकि अभी तो तुम्हारा होना अस्तित्व ही नहीं रखता है। अपने जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य बन जाने दो, आत्मवान बनो।' अगर कोई गुर्जिएफ से पूछता, 'हम प्रेम कैसे करें?' वह कहता, 'नासमझी की बातें मत पूछो। पहले आत्मवान बन जाओ, क्योंकि जब तक तुम आत्मवान न होओगे, तुम प्रेम कैसे कर सकते हो?' जब तक तुम आत्मवान नहीं बनोगे, तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? जब तक आत्मवान नहीं बनोगे, कैसे कुछ कर सकते हो? सर्वप्रथम तो आत्मवान होना है, फिर उसके बाद ही सभी कुछ संभव हो सकता है। जीसस कहा करते थे, 'पहले तुम प्रभु का राज्य खोज लो, और फिर सब अपने से मिल जाएगा।' मैं इसमें थोड़ा परिवर्तन करना चाहूंगा पहले अपने अंतर – अस्तित्व को, अपने प्रभु के अस्तित्व के राज्य को खोज लो, और फिर सब अपने से मिल जाएगा। और जीसस का भी प्रभु के राज्य से यही मतलब है। अस्तित्व के राज्य को ही पुरानी शब्दावली में प्रभु का राज्य कहा जाता है। पहले आत्मवान, अस्तित्ववान हो जाओ -तब सभी कुछ संभव है। लेकिन अभी तो जब मैं तुम्हारी आंखों में देखता हूं, तो तुम वहां मौजूद ही नहीं होते। बहुत से अतिथि वहां होते हैं, लेकिन मेजबान ही वहा नहीं होता है। 'एकाग्रता परिणाम', चेतना की एकाग्रता की आधारभूत रूप से आवश्यकता है, जिससे तुम्हारा अस्तित्व जीवंत हो सके। अगर तुम हमेशा परिवर्तित होते रहो, अस्तित्ववान होने की कोई संभावना ही नहीं है। अधिक से अधिक आज यह रूप होगा, तो कल वह रूप होगा, तो कभी कुछ और रूप होगा, लेकिन अस्तित्ववान कभी न हो सकोगे। 'जो कुछ अंतिम चार सूत्रों में कहा गया है, उसके द्वारा मूल -तत्वों और इंद्रियों की विशिष्टताओं उनके गुण - धर्म और उनकी अवस्थाओं के रूपांतरणों की व्याख्या भी हो जाती है।'
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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