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बच्चा बाहर आना चाहता है, क्योंकि अब वह यदि गर्भ में रहा, तो मर जाएगा। तो बच्चा हर ढंग से प्रयास करेगा बाहर आने के लिए, और स्त्री तनावपूर्ण है; वहा एक संघर्ष पैदा हो जाता है। वह संघर्ष पीड़ा निर्मित कर देता है; वरना तो बच्चे का जन्म पीड़ा के साथ नहीं होना चाहिए। यह अनिवार्य नहीं है; उसकी कोई आवश्यकता नहीं है।
जरा भारत की पुरानी, प्राचीन जनजातियों को देखो। प्रसव इतनी आसानी से, इतने स्वाभाविक रूप से होता है कि उन लोगों ने कभी सुना ही नहीं है कि यह भी कोई पीड़ा की बात है। कोई स्त्री खेत में काम कर रही होती है और बच्चा पैदा हो जाता है कोई भी नहीं होता उसकी देख-भाल करने के लिए; वह स्वयं ही अपनी देख-भाल कर लेगी। वह बच्चे को लिटा देगी वृक्ष के नीचे, अपना दिन भर का काम करेगी-घर वापस जाने की भी कोई जल्दी नहीं होती-फिर शाम को बच्चे को लेकर घर चली जाएगी। बड़ी सीधी बात, एकदम सहज, जैसा कि जानवरों में होता है कोई समस्या नहीं होती। मां पैदा कर देती है समस्या। मां तनाव से भरी होती है, भयभीत होती है। वह तनाव और बच्चे का बाहर आने का प्रयास एक संघर्ष पैदा कर देता है, और तब इसमें समय लगता है।
बच्चा तो बाहर आने के लिए तैयार ही है। तुम सभी गर्भ का समय पूरा कर चुके हो। जैसा कि मैं जानता हूं हर किसी का नौवां महीना है-नौ महीने कब के पूरे हो गए हैं। अब कुल समस्या इतनी है कि कैसे थोड़े शिथिल हों, विश्रांत हों और बच्चे को बाहर आने दें और उसे जन्म दें।
लेकिन तुम तभी विश्रांत हो सकते हो यदि तुम भयभीत नहीं हो। स्वीकार करो, भयभीत मत होओ। स्वीकार करो जीवन को। वह मित्र है, शत्रु नहीं है। यह सारा अस्तित्व हमारा घर है; तुम कोई अजनबी नहीं हो यहां। भूल जाओ सब कि इस बारे में डार्विन क्या कहता है-जीवित बने रहने के लिए संघर्ष, विजय, प्रतिस्पर्धा। सब बकवास है। सुनो उन लोगों की जो कहते हैं कि यह हमारा घर है, क्योंकि वे ही ठीक हैं। इससे अन्यथा संभव नहीं है।
तुम जीवन से आए हो-जीवन तुम्हारे विरुद्ध कैसे हो सकता है? मां कैसे विरुद्ध हो सकती है बच्चे के? और तुम वापस लौट जाओगे उसी में। जैसे कि कोई लहर सागर से उठती है, सूर्य की किरणों में नाचती है, और फिर वापस सागर में गिर जाती है। सागर कैसे विरुद्ध हो सकता है लहर के? असल में लहर की सारी शक्ति सागर से मिला एक उपहार ही है. वह ऊंची उठती है तो ऐसा नहीं कि 'वह' उठती है, बल्कि सागर ही उठता है उसमें।
तम चेतना के इस सागर में लहरों की भांति हो। स्वीकार करो इसे। अनुभव करो कि तुम अपने घर में हो। तुम कोई अजनबी नहीं हो यहां; तुम बहुत प्रिय हो अस्तित्व के। और फिर, अचानक ही, तुम साहस जुटा लेते हो, क्योंकि कोई भय नहीं रहता।
बुद्धत्व सदा अचानक घटता है। यदि तुम्हें क्रमिक रूप से बढ़ना पड़ता है तो अपने बंद, संदेहशील और भयभीत मन के कारण ही।