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समस्या इसीलिए है क्योंकि मनुष्य दोनों है. दो जगतो के बीच एक सेतु है-पदार्थ और मन के बीच, इस संसार और उस संसार के बीच, क्षणभंगुर और सनातन के बीच, जीवन और मृत्यु के बीच एक सेतु है। यही सौंदर्य भी है-मनुष्य के रहस्य का, विरोधाभास का। मनुष्य कोई पहेली नहीं है, मनुष्य एक रहस्य है।
तो क्या करें? यदि तुम पावलोव की और उसके शिष्य बी एफ स्किनर की बात मान कर बैठ जाते हो, तो तुमने मनुष्य को जाने बिना, समझे बिना, उसे जानने का प्रयास किए बिना ही उनकी बात मान ली। और यदि तुम बुद्ध से, महावीर से, कृष्ण से, क्राइस्ट से या पतंजलि से बहुत जल्दी राजी हो जाते हो-यदि तुम्हारी स्वीकृति अपरिपक्व है-तो यह बात कि मनुष्य परमात्मा है एक विश्वास ही रहेगी, यह श्रद्धा नहीं हो सकती। यदि तुम किसी भी बात को मान लेने की जल्दी में हो, तो तुम चूक जाओगे। मनुष्य को जानने के लिए, समझने के लिए एक गहन धैर्य चाहिए।
और मनुष्य को बाहर से जानने का कोई उपाय नहीं है। यदि तुम मनुष्य को बाहर से जानने की कोशिश करते हो, जैसा कि वैज्ञानिक करते हैं, तो तुम पावलोव जैसी गलती करोगे-मनुष्य कुत्ते जैसा मालूम होगा! मनुष्य को जानने का एकमात्र उपाय उस मनुष्य को जानना है जो तुम्हारे भीतर है। मनुष्य को सीधा-सीधा जानने का एकमात्र उपाय है स्वयं का साक्षात्कार करना।
तुम अपने भीतर एक विराट शक्ति लिए हुए हो। जब तक उससे तुम्हारी पहचान न हो जाए, तुम उसे बाहर दूसरों में नहीं देख पाओगे और नहीं पहचान पाओगे। इसे एक कसौटी की भांति खयाल में ले लेना : कि जितना तुम स्वयं को जानते हो उतना ही तुम दूसरों को जान सकते हो। उससे रत्ती भर ज्यादा नहीं। बिलकुल नहीं-असंभव है यह बात। पहले जानने वाले को जानना होता है; केवल तभी दूसरे के रहस्य में उतरा जा सकता है। तुम्हें पहले अपनी गहराई में उतरना होता है, केवल तभी तुम्हारी आंखें दूसरों की गहराई को पहचानने में सक्षम होती हैं।
यदि तुम अपनी परिधि पर रहते हो तो सारा अस्तित्व उथला मालूम होगा। यदि तुम सोचते हो कि तम सागर की एक लहर हो, और सागर से तम्हारा कोई परिचय नहीं है, तो बाकी लहरें भी लहरें ही रहेंगी। जब तुम अपने भीतर उतरते हो और जान लेते हो कि तुम सागर हो-तुम सदा सागर ही रहे हो, तुम्हें बस जानना है तो बाकी सब लहरें भी खो जाती हैं, अब केवल सागर ही लहरा रहा होता है। अब प्रत्येक लहर के पीछे-संदर कि असंदर, छोटी कि बड़ी, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता–प्रत्येक लहर के पीछे सागर ही लहराता है।
योग एक विधि है तुम्हारे अपने अस्तित्व की आत्यंतिक गहराई के साथ, तुम्हारी आत्मा की निजता के साथ जुड़ने की। वह अथाह है तुम उसमें डुबकी मारते हो, लेकिन तुम कभी उस अवस्था तक नहीं पहुंचते जहां तुम कह सको, 'मैंने सब जान लिया है।' तुम गहरे, और गहरे, और गहरे उतरते जाते हो। वह अथाह है। तुम और- और गहरे उतर सकते हो उसमें, लेकिन फिर भी बहुत सदा ही शेष रहता है।