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दखने की कोई बात नहीं है। सजग रहने की बात है कि वह भीतर जा रही है, कि वह पहुंच गई
बिलकुल तुम्हारे अंतरतम केंद्र तक, कि अब वह रुक गई, कि अब वह लौट कर बाहर आ रही है। उतार और चढ़ाव : अब वह बाहर गई, पूरी तरह बाहर चली गई, रुक गई; फिर वापस आने लगी। वह पूरा वर्तुल- भीतर आना, बाहर जाना, भीतर आना, बाहर जाना-तुम्हें सजग रहना पड़ता है। यदि तुम उसे अनुभव करते हो, तो वही सजगता है लेकिन उसे अनुभव करने में चूक नहीं होनी चाहिए। यदि तुम एक घंटे रोज यह कर सको, तो तुम्हारा पूरा जीवन बदल जाएगा।
और ध्यान रहे, यदि तुम अपनी श्वास को बदलते नहीं हो, तो कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं हो रहा है तुम में। यही पतंजलि और बुद्ध में भेद है। पतंजलि की विधियां तुम्हारी रासायनिक व्यवस्था को बदलेंगी; बुद्ध की विधि तुम्हारी रासायनिक व्यवस्था को बिलकुल नहीं छुएगी। स्वाभाविक श्वासजैसी कि वह है-तुम केवल ध्यान देते हो, अनुभव करते हो, देखते हो। उसे बिना देखे भीतर –बाहर नहीं होने देते हो, बस इतना ही। उसे बदलते नहीं। उसे वैसी ही रहने देते हो जैसी वह है। बस एक बात जोड़ देते हो कि तुम उसके साक्षी हो जाते हो।
यदि तुम एक घंटे भी यह प्रयोग करते हो तो तुम्हारा पूरा जीवन रूपांतरित हो जाएगा और बिना ही किसी रासयनिक परिर्वतन के तुम होगा उसके पार का अनुभव, एक अनुभवातीत चैतन्य हो जाओगे। तुम सबुद्धों को जानोगे ही नहीं, तुम स्वयं ही सबुद्ध हो जाओगे। और यही स्मरण रखने योग्य बात है : बुद्धों को देखने का कोई महत्व नहीं है-जब तक कि तुम स्वयं बुद्ध न हो जाओ।
आठवां प्रश्न :
क्या साक्षी-भाव एक ठंडी भाव-शून्य घटना होनी चाहिए?
नहीं, साक्षी-भाव ठंडी घटना नहीं होती, लेकिन शीतल होती है। ठंडी नहीं बल्कि शीतल। और भेद
बड़ा है। जब कोई बात ठंडी, भाव-शून्य होती है, तो तुम उसकी तरफ उदासीन भाव से देख रहे होते हो, परवाह नहीं कर रहे होते, तटस्थ होते हो। शीतलता अलग बात है : तुम उसकी ओर ध्यानपूर्ण होते हो, तुम तटस्थ नहीं होते, लेकिन तुम्हारा मोह भी नहीं होता। तुम आविष्ट नहीं होते; तुम उसके प्रति व्यग्र नहीं होते; तुम उत्तेजित नहीं होते। यदि तुम इन दो अतियों से बच सको-उदासीनता से और उत्तेजना से-तो एक शीतलता, एक शांत-शीतल, समग्र अनुभूति तुम्हें घेर लेती है।