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यह बात ठीक से समझ लेनी है। गुरजिएफ ने जीवन भर आत्म-स्मरण की विधि पर काम किया क्योंकि पश्चिम में साक्षी की बात करना करीब-करीब असंभव ही है, क्योंकि पश्चिम जीता रहा है आत्म-विश्लेषण में तमाम ईसाई मठ हैं, जो आत्म-विश्लेषण सिखाते आए हैं। गुरजिएफ ने कुछ ऐसी बात कही जो आत्म-विश्लेषण से हट कर थी; उसने उसे आत्म-स्मरण कहा वह चाहता था कि साक्षी की बात भी सामने रखे, लेकिन ऐसा हो न सका क्योंकि साक्षी केवल तभी संभव है जब आत्म-स्मरण जड़ें पकड़ चुका हो; उससे पहले साक्षी संभव नहीं है। आत्म-स्मरण के पकने से पहले साक्षी की बात करना किसी काम का न होगा; बिलकुल व्यर्थ होगा। उसने बहुत प्रतीक्षा की, लेकिन वह साक्षी की बात नहीं सामने रख सका।
पूरब में हमने दोनों का उपयोग किया है। असल में हमने तीनों का उपयोग किया है : आत्मविश्लेषण बहुत साधारण धार्मिक लोगों के लिए था, उनके लिए जो गहरे नहीं जाना चाहते, जो गहरे जाना चाहते हैं, उनके लिए आत्म-स्मरण है, और जो इतने गहरे जाना चाहते हैं कि खो जाएं गहराई में, उनके लिए साक्षी है। साक्षी अंतिम है। उसके पार कुछ नहीं है। तुम साक्षी के साक्षी नहीं हो सकते, क्योंकि वह भी साक्षी होना होगा। तो साक्षी के पार जाने की कोई संभावना नहीं है. तुम अंत पर आ गए। साक्षी जगत का अंत है।
तो आत्म-विश्लेषण से बढ़ो आत्म-स्मरण की ओर, और प्रतीक्षा करो कि किसी दिन आत्म-स्मरण से साक्षी की ओर बढ़ सको। लेकिन यह बात ध्यान रहे कि आत्म-स्मरण लक्ष्य नहीं है। वह सेतु के रूप में अच्छा है, लेकिन तुम्हें उसे पार कर जाना है, तुम्हें उसके पार चले जाना है।
छठवां प्रश्न :
क्या यह संभव है कि कोई साधक कुछ समय के लिए शुद्ध चेतना की स्थिति में रहे और फिर वापस गिर जाए?
नहीं, यह संभव नहीं है। लेकिन ऐसा होता है कि तुम्हें शुद्ध चैतन्य की एक झलक मिलती है;