________________
दूसरी अवस्था है जब हाथी ही मौजूद होता है, पूंछ मात्र नहीं : जब स्थिति अपने शिखर पर होती है। तुम सचमुच ही क्रोध के शिखर पर होते हो उबल रहे होते हो, भभक रहे होते हो तब तुम सजग हो जाते हो।
फिर एक तीसरी अवस्था है. क्रोध अभी आया नहीं है, अभी आने-आने को है - पूछ नहीं, बल्कि सिर दिख रहा है वह बस प्रवेश कर ही रहा होता है तुम्हारी चेतना के क्षेत्र में और तुम सजग हो जाते हो तब हाथी प्रवेश ही नहीं कर पाता। तुमने पैदा होने से पहले ही मार दिया जानवर को यह है संततिनिरोध। घटना घटी ही नहीं, तो वह कोई चिह्न नहीं छोड़ती।
यदि तुम उसे बीच में रोकते हो, तो सिर तो प्रवेश कर ही चुका, आधी घटना तो घट ही चुकी । वह कुछ न कुछ प्रभाव छोड़ जाएगी तुम पर कोई निशान, कोई बोझ, कोई घाव - तुम खरोच अनुभव करोगे। चाहे तुम अब इसका पूरा असर न भी होने दो, तो भी वह प्रवेश कर चुका है। यदि तुम पूंछ को देखते हो, तब तो सारी घटना घट ही चुकी होती है ज्यादा से ज्यादा तुम पछता सकते हो; और पछताना है सोच-विचार फिर तुम शिकार हो जाते हो मन के ।
|
एक सजग व्यक्ति कभी नहीं पछताता पछताने में कोई सार भी नहीं है, क्योंकि सजगता जैसे-जैसे और गहरी होती है, तो वह पूरी प्रक्रिया को शुरू होने से पहले ही रोक सकता है। तो पछताने की जरूरत ही क्या है? और ऐसा नहीं कि वह उसे रोकने का प्रयास करता है- यही है उसका सौंदर्य- वह केवल उसे देखता है। जब तुम देखते हो किसी भाव - दशा को, किसी परिस्थिति को, किसी भावना को, अनुभूति को विचार को जब तुम पूरी सजगता से देखते हो तो वह देखना प्रकाश की भांति होता है.
-
-
अंधकार खो जाता है।
आत्म-विश्लेषण और आत्म-स्मरण के बीच बहुत फर्क है। मैं आत्म विश्लेषण के पक्ष में नहीं हूं। असल में आत्म-विश्लेषण थोड़ा रुग्ण है यह अपने घाव उघाड़ने जैसा है। इससे मदद न मिलेगी। इससे घाव भरेंगे नहीं। वस्तुतः इसका उलटा ही असर होगा यदि तुम अपने घाव में अंगुली डालते रहो तो घाव हमेशा हरा रहेगा।
आत्म-विश्लेषण ठीक नहीं है। आत्म-विश्लेषण करने वाले व्यक्ति सदा विकृत होते हैं, बीमार होते हैं वे बहुत ज्यादा सोचते रहते हैं। आत्म-विश्लेषण करने वाले लोग बंद होते हैं वे अपने घावों से और अपनी पीड़ा से और अपनी चिंता, उद्विग्नता से खेलते रहते हैं और तब पूरा जीवन ही एक समस्या मालूम पड़ता है, जिसका कोई हल नजर नहीं आता। हर चीज समस्या मालूम पड़ती है आत्म-विश्लेषण करने वाले व्यक्ति को कुछ भी बात होती है, वह समस्या बन जाती है!
और फिर वह बहुत ज्यादा भीतर जीने लगता है; वह बाहर नहीं जीता। संतुलन खो जाता है।