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________________ नहीं जाती सलाह-मशविरा करने के लिए। वह बस सहज रूप से पहुंच जाती है सागर तक। तारे घूम रहे हैं। हर चीज चल रही है इतने सहज रूप से, कहीं कोई गड़बड़ी नहीं होती और कभी कोई भटकता नहीं। केवल आदमी ही चिंताओं का इतना बोझ ढोए रहता है : कि क्या करे, क्या न करे; क्या अच्छा है और क्या बुरा है; मंजिल तक कैसे पहुंचे, प्रतियोगिता में कैसे सफल हों-दूसरों को पहुंचने से कैसे रोकें और सबसे पहले कैसे पहुंचें-कैसे कुछ हो जाएं! बुद्ध ने इसे कहा है तन्हा का रोग, तृष्णा का रोग। जो सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है उसका होना हो ही गया। अब कोई रोग नहीं बच रहता कुछ होने का; वह हो गया जो होना था। कुछ होने की कोशिश है रोग; अपने में होना है स्वास्थ्य। और अंतस सत्ता अभी इसी क्षण उपलब्ध है अगर तुम भीतर मुड़ जाओ। भीतर देखने भर की बात है। मैंने एक झेन फकीर के बारे में सुना है। बुद्धत्व को उपलब्ध होने के पहले वह सरकारी दफ्तर में एक छोटा-मोटा अफसर था। वह अपने गुरु के पास आया और वह भिक्षु हो जाना चाहता था, व त्याग देना चाहता था संसार को। गुरु ने कहा, 'इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अंतस सत्ता को कहीं भी रह कर पाया जा सकता है। आश्रम में आने की कोई जरूरत नहीं। वहीं रह कर बुद्धत्व उपलब्ध हो सकता है जहां तुम हो। वहीं रहो, वहीं उसको घटित होने दो।' वह ध्यान करने लगा, और यही ध्यान था-मौन बैठना, कुछ न करना। विचार आते और चले जाते। वह बस देखता रहता, न निंदा करता, न प्रशंसा करता-कोई मूल्यांकन नहीं-केवल देखता रहता उन्हें निर्लिप्त, तटस्थ। वर्षों बीत गए। एक दिन वह अपने आफिस में बैठा था, कुछ आफिस का काम कर रहा था। अचानक-बरसात के दिन थे-जोर से बिजली कड़की और एक झटका लगा उसे, और वह अपने अंतरतम केंद्र में उतर गया : और वह हंसने लगा। और ऐसा कहा जाता है कि फिर उसने कभी बंद नहीं किया हंसना। वह हंसते हुए गया गुरु के पास और उसने कहा, 'बादलों का अचानक गरजना और मैं जाग गया। मैंने भीतर देखा और वह सनातन पुरुष भीतर वहा विराजमान था। खोजता था जन्मों-जन्मों से जिसे, वह भीतर ही बैठा था शांत और तप्त!' बादलों का अचानक गरजना। अगर तुम i का अचानक गरजना। अगर तुम तैयार हो तो कोई भी चीज बहाना बन सकती है। गुरु की एक पुकार, गुरु की एक चोट, गुरु की एक दृष्टि-बादलों का अचानक गरजना-और कुछ हो जाता है।. तुम वही हो जिसे तुम खोजते रहे हो। भीतर मुड़ कर देखने भर की बात है। तुम अपने आत्यंतिक केंद्र में स्थित हो जाते हो। और फिर तुम समग्र के माध्यम हो जाते हो, समग्र तुमसे होकर बहता है-और समग्र के माध्यम हो जाना ही सब कुछ है। फिर और कुछ नहीं बचता। तब तुम्हारी नदी बहती है सागर की ओर, तुम्हारे वृक्ष पर वसंत आ जाता है, फूल खिलने लगते हैं।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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