________________ मुंह में पानी आ जाता है, लेकिन जब मैं कहता हूं 'ध्यान' तो कोई संबंध नहीं बनता। जब मैं कहता हूं 'परमात्मा' तो रूखा-सूखा ही रहता है मुंह। तुमने स्वाद ही नहीं लिया, वह शब्द अर्थहीन है। इसीलिए मैं कहता हूं. पहले ध्यान करो। यानी थोड़ा स्वाद लो, थोड़ी झलक लो। तब तुम अपने से चलने लगोगे, और फिर तुम दूसरे चरण पूरे करने लगोगे। तुम्हें चाहिए एक झलक, पहले उसकी कोई जरूरत न थी; इसलिए मेरा जोर है सीधे ध्यान पर। एक बार तुम ध्यान में उतर जाओ, फिर सब कुछ पीछे-पीछे चला आएगा। मुझे उसके बारे में कहने की जरूरत नहीं; तुम स्वयं ही वैसा करने लगोगे। जब तुम ध्यान में उतरते हो, तो तुम मौन और शात बैठ जाना चाहोगे ही : आसन सध जाएगा। जब तुम ध्यान में उतरते हो, तो तुम देखोगे कि श्वास की एक मौन लय होती है. प्राणायाम सध जाएगा। जब तुम मौन होते हो, ध्यानपूर्ण होते हो, आनंदमग्न होते हो अपने एकांत में, तो तुम्हारा चरित्र बदल जाएगा; तुम किसी के जीवन में दखलंदाजी न करोगे : तुम अहिंसक हो जाओगे। तुम प्रामाणिक हो जाओगे, क्योंकि जब भी तुम अप्रामाणिक होओगे तो तुम्हारा आंतरिक संतुलन खो जाएगा। झूठे होकर, बेईमान होकर तुम शायद बचा लो पांच रुपए, लेकिन झूठे होकर तुम भीतर का बहुत कुछ खो दोगे। अब तुम्हें एक नया उपलब्ध हुआ धन खोना पड़ेगा। और मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो इतना मूढ़ हो कि मात्र पांच रुपए के लिए वह भीतर का खजाना खोने को राजी हो, जो कि ज्यादा मूल्यवान है, अपार मूल्यवान है। फिर चला आता है 'यम'। जब तुम और-और मौन, और- और शात हो जाते हो तो जीवन स्व-स्फूर्त हो जाता है : 'नियम', एक आंतरिक अनुशासन अपने आप चला आता है। बस जरा सी तुम्हारी मदद और थोड़ी समझ, तो चीजें एक कम में उतरने लगती हैं। लेकिन पहली बात है यह जानना कि ध्यान क्या है; शेष सब पीछे चला आता है। जीसस ने कहा है, 'पहले प्रभु का राज्य खोज लो, फिर सब कुछ पीछे-पीछे चला आता है। वही मैं तुम से कहता हूं। अंतिम प्रश्न : स्पष्ट है कि मैं पिछले सभी बुद्ध पुरुषों से बचता रहा जिनसे मेरा पहले मिलना हुआ। लेकिन अब मैं जानता हूं कि जब तक मैं इस शरीर में हूं मैं इस बुद्ध को नहीं छोडूंगा लेकिन फिर एक छिपाछिपा भय बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि अभौतिक मिलन होने के पहले ही मैं देह छोड़ हूं या आप विदा हो जाएं।