________________ कुछ ठीक है; हर चीज सुंदर है; हर चीज पवित्र है। और मैं अनुगृहीत हूं क्योंकि मैंने इसे अर्जित नहीं किया है और मुझे एक मौका मिला है, एक सुअवसर मिला है-जीने का, होने का, श्वास लेने का, देखने का, सुनने का। वृक्षों को फूलते-फलते देखने का और पक्षियों के गीत सुनने का।' यदि तुम सजग हो सको-बस थोड़ी सी सजगता और तुम पाओगे न कहीं कुछ बदलना है, न किसी चीज की आकांक्षा करनी है-हर चीज तुम्हें मिली ही हुई है। तुम्हारी शिकायतो के कारण-शिकायतो की धुंध के कारण, नकारात्मकता के कारण-तुम देख नहीं पाते, तुम्हारी आंखें धुएं से भरी रहती हैं और तुम ज्योति को देख नहीं पाते। संतोष है एक दृष्टिकोण-जीवन को देखने का एक भिन्न दृष्टिकोण आकांक्षाओं दवारा न देखना, बल्कि उसे देखने का प्रयास जो कि पहले ही उपलब्ध है। यदि तुम कामना के माध्यम से देखते हो, तो तुम कभी संतुष्ट न होओगे। कैसे हो सकते हो तुम! क्योंकि कामना तो आगे, और आगे बढ़ती जाती है। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं, तो कामना कहती है सौ हजार चाहिए। जब तुम्हारे पास सौ हजार होते हैं, तो कामना आगे बढ़ चुकी होती है, अब दस लाख रुपए चाहिए, सौ लाख रुपए चाहिए। जब तुम वहां पहुंचोगे, कामना तुमसे और आगे जा चुकी होगी। वह तुम्हारे आगे-आगे ही चलती है। वह कभी भी तुम्हारे साथ नहीं चलती; तुम उसको कभी पूरा न कर पाओगे। कितना भी तुम दौड़ो, सदा उसे क्षितिज की भांति पाओगे-आगे, कहीं भविष्य में। सदा ऐसा ही होगा। और पीछे-पीछे आएगा असंतोष. कामना है आगे, तो तुम असंतुष्ट ही रहोगे। और असंतोष नरक है। जब तुम समझ लेते हो इस बात को, तो तुम सत्य को कामना के पर्दे से नहीं देखते; तुम देखते हो प्रत्यक्ष, तुम देखते हो सीधे-सीधे, तुम कामना को हटा देते हो एक तरफ और तुम सीधे देखते तुम आंखें खोलते हो और तुम सीधे देखते हो, और हर चीज इतनी ठीक मालूम पड़ती है! मैंने देखा है इस तरह, इसीलिए मैं तुम से ऐसा कहता हं। सब कुछ इतना ठीक है कि इसे और बेहतर नहीं किया जा सकता। यह अंतिम है, कोई सुधार संभव नहीं है। तब संतोष तुम में उतरता है किसी संध्या की भांति। वह सूर्य, कामना- आकांक्षा का वह झुलसा देने वाला सूर्य अस्त हो चुका होता है और शीतल सांध्य पवन और शांत, गहरी सौम्य-संध्या तुम में उतर आती है और जल्दी ही तुम सुखद रात से आच्छादित हो जाओगे, तम संतोष के अंतरगर्भ में उतर जाओगे। संतोष देखने का एक दृष्टिकोण है; लेकिन जब तुम शुद्ध होते हो, निर्भार होते हो, केवल तभी यह संभव होता है। और संतोष के बाद पतंजलि कहते हैं-तप। यह ठीक से समझ लेने जैसी बात है, बहुत ही नाजुक और सूक्ष्म बात है। तुम संतोष आने से पहले भी तपस्वी हो सकते हो, लेकिन तब तुम्हारा तप कामनाओं के कारण होगा। तब अपने तप द्वारा भी तुम कामना कर रहे होओगे मोक्ष की, मुक्ति की, स्वर्ग की, ईश्वर की। तब तुम्हारी तपस्या भी एक साधन ही होगी। इसीलिए पतंजलि पहले कहते हैं संतोष और फिर कहते हैं तप। जब तुम संतुष्ट होते हो, तब तप कुछ पाने का साधन नहीं रहता; तब यह सहज सुंदर ढंग होता है जीने का। तब यह प्रश्न नहीं होता कि तुम्हारे पास कम चीजें हैं कि ज्यादा चीजें