________________
इसीलिए अतीत में इसकी कोई जरूरत न थी। अब इसकी जरूरत है। अब मनुष्य एक बड़े संक्रांतिबिंदु से गुजर रहा है। ऐसा होता है कि पच्चीस सौ साल बाद मनुष्यता एक मोड़ लेती है; एक वर्तुल पूरा होता है। मनुष्य-चेतना ने एक करवट ली थी बुद्ध के समय में। अब पच्चीस सौ साल बीत गए हैं और वह मोड़ फिर आ गया है। जो सजग हैं वे सर्वाधिक लाभान्वित होंगे उस मोड़ से, क्योंकि वे उपयोग कर सकते हैं उस उमड़ते ज्वार का। वे यात्रा कर सकते हैं उस ऊंचे ज्वार पर; वे सरलता से घर पहुंच सकते हैं। जब समुद्र उतार पर होता है तो किनारे पर पहुंचना कठिन होता है। जब समुद्र ज्वार पर होता है तो लहरें अपने आप जा रही होती हैं किनारे की ओर-तुम अपनी नाव लहरों में छोड़ देते हो और वे तुम्हें ले जाती हैं।
इन पच्चीस वर्षों के भीतर ही इतिहास के सब से महत्वपूर्ण संक्रांति-कालों में से एक काल आने वाला है और मनुष्य-चेतना एक मोड़ लेगी। यदि उस घड़ी तुम तैयार होते हो और ध्यानमय होते हो तो बहुत कुछ संभव है जो कि फिर पच्चीस सौ साल तक संभव न होगा। पतंजलि के युग में एक मोड़ आया था; पतंजलि हुए बुद्ध से पच्चीस सौ साल पहले। ऐसा सदा ही हुआ है।
यह ऐसे ही है जैसे पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा करती है एक निश्चित अवधि में, वैसे ही पूरी मनुष्य-चेतना एक वर्तुल में बढ़ती है और एक निश्चित अवधि, पच्चीस सौ साल में अपने मूल स्रोत तक आ जाती है। वह संक्रांति का क्षण निकट है। वह बहुत आमूल रूपांतरकारी बन सकता है। यदि तुम एक समन्वय को उपलब्ध हो, तो तुम उस घड़ी का उपयोग कर पाओगे। यदि तुम समन्वय को उपलब्ध नहीं हो-तुम मुसलमान बने रहते हो, क्रिश्चियन बने रहते हो-तो तुम पुराने ही रहते हो, तुम अतीत ही रहते हो। तुम 'यहां नहीं होते; तुम वर्तमान में नहीं होते।
तुम्हें वर्तमान में लाने के लिए, तुम्हें यह समझने में सक्षम बनाने के लिए कि शीघ्र ही क्या घटने वाला है, इसीलिए संश्लेषण का यह मेरा सारा प्रयास है।
अंतिम प्रश्न:
आप भलीभांति जानते हैं कि हमारे पास केवल मन की आवाज ही है फिर आपका क्या अर्थ है हमें यह कहने में कि अपने अंतस की आवाज सुनो और उसी के अनुसार चलो? क्या शून्य की भी कोई आवाज होती है?
हां, शून्य की अपनी आवाज होती है। शाब्दिक अर्थों में तो वह कोई आवाज नहीं होती; वह केवल एक अंतःप्रेरणा होती है। वह कोई ध्वनि नहीं है, वह मौन है। कोई कहता नहीं कुछ करने के लिए, तुम्हें