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शिक्षाएं भिन्न हैं लेकिन शिक्षक नहीं। शिक्षक एक ही है। शिक्षाएं भिन्न हैं क्योंकि विदयार्थी भिन्न हैं, शिष्य भिन्न हैं। पतंजलि एक अलग तरह के लोगों से बात कर रहे थे-तुम्हें ठीक से समझ लेनी है यह बात-लाओत्सु एक अलग तरह के लोगों से बात कर रहे थे।
भारत में रहस्यवाद भी बहुत तर्कसंगत घटना है। भारत बहुत वैचारिक देश है : वह उन बातो पर भी विचार करता है जिन पर विचार नहीं किया जा सकता, वह उसके विषय में भी सिद्धात बनाता है जिसे कि सिद्धांतबद्ध नहीं किया जा सकता; वह उसको भी परिभाषित करता है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। सारे भारतीय शास्त्र भरे पड़े हैं इससे। वे कहते रहेंगे, 'ईश्वर को परिभाषित नहीं किया जा सकता है और वे परिभाषित करेंगे। और वे कहेंगे, 'सत्य अपरिभाष्य है'-और यह कह कर उन्होंने परिभाषा कर दी होती है उसकी; उन्होंने उसका एक लक्षण तो बता ही दिया कि वह अपरिभाष्य है। वे कहेंगे, 'ईश्वर के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है और तुरंत वे कह देंगे, 'वह तुम्हारे भीतर ही है' या 'उसी ने रचा है सब कुछ' या 'वह सर्वव्यापी।'
भारत एक चिंतनशील देश है। उसका चिंतन से बड़ा लगाव है। वह चिंतन में इतना रस लेता है कि उसकी वजह से वह लगभग अव्यावहारिक हो गया है। लोग खूब सोचते-विचारते रहे। और बस वे सोचते रहे, सोचते ही रहे, और फलत: अव्यावहारिक हो गए-करीब-करीब अकर्मण्य। भारत ने कोई वैज्ञानिक टेक्यॉलॉजी पैदा नहीं की। यदि व्यावहारिक मस्तिष्क हो तो वह कुछ करने में रस लेता है। भारत एक अव्यावहारिक चिंतक देश है; वह बस सोचता ही रहता है। लगता है जीवन का कुल काम केवल इतना ही है--सोचना!
लाओत्सु के समय चीन बिलकुल भिन्न था, और वे शिष्य जो उसके पास इकट्ठे हुए थे...।
और यह कोई नई परंपरा नहीं थी जिसे कि लाओत्सु प्रवर्तित कर रहा था। यह लाओत्सु से कम से कम पांच हजार वर्ष पहले से चली आई थी। यह बहुत प्राचीन परंपरा थी। चीन उन दिनों एक गैरवैचारिक देश था. विचारशील कम था और ध्यानशील ज्यादा था। उसका विचार से, सिदध दार्शनिकता से कोई संबंध न था। चीन ने सुंदर दर्शन नहीं दिए हैं संसार को- भारत ने दिए हैं। करीब-करीब दुनिया के सभी दर्शन जो तुम जानते हो, उनके बीज तुम भारत में पाओगे।
विचार से, सिद्धांतो से,
कभी-कभी बहुत अदभुत घटनाएं घटती हैं। तुम संसार के किसी ऐसे दर्शन की कल्पना नहीं कर सकते जिसका समानांतर भारत में न हो। जिस पर कहीं भी विचार हआ है, उस पर भारत में पहले ही विचार हो चुका है। विचार में तम भारतीयों का मुकाबला नहीं कर सकते। आज के भारतीय आज के भारतीयों की बात नहीं कर रहा हूं। वे तो केवल खंडहर हैं बीते ऐश्वर्य के। असली भारत का तो अब कोई अस्तित्व ही नहीं है। बुद्ध का भारत, पतंजलि, वेदों और उपनिषदों का भारत, वह बिलकुल खो गया है। वे विचार करते रहे और विचार करते रहे और उन्होंने संसार के विषय में अदभुत सिद्धांतो की रचना की, लेकिन वे प्रायोगिक न थे, वे व्यावहारिक न थे।