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अवरुद्ध घटना नहीं रह जाओगे; तुम एक प्रवाह बन जाओगे। और प्रवाह सुंदर होता है। अवरुद्ध होकर और बंद होकर जीने का मतलब है-कुरूप और मृत हो जाना।
ये पांच आंतरिक आत्म-अनुशासन आधारभूत आवश्यकताएं हैं।
.......जाति स्थान समय या स्थिति की सीमाओं से परे....../
चाहे तुम आज पैदा हुए हो या तुम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। भारत में ऐसे धर्मोपदेशक हैं जो कहते हैं, 'इस कलियुग में तुम संबुद्ध नहीं हो सकते!' और पतंजलि कहते हैं : '... जाति, स्थान, समय या स्थिति की सीमाओं से परे...।' तुम जहां भी हो संबुद्ध हो सकते
हो।
समय से कुछ अंतर नहीं पड़ता। होशपूर्ण होने की बात है। स्थान का महत्व नहीं है। चाहे तुम हिमालय में हो या बाजार में, उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। परिस्थिति महत्वपूर्ण नहीं है-चाहे तुम गृहस्थ हो या संन्यासी हो। न जाति-वर्ग का महत्व है-चाहे तुम समृद्ध हो या दरिद्र, शिक्षित हो या अशिक्षित, ब्राह्मण हो या शूद्र, हिंदू हो या मुसलमान, ईसाई हो या यहूदी-कोई बात महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि गहरे में तुम एक हो।
सतह पर बहुत सी भिन्नताएं हो सकती हैं, लेकिन वे केवल सतह पर ही होती हैं; केंद्र अछता ही रहता है। केंद्र की शुद्धता को पा लेना है। वही लक्ष्य है।
आज इतना ही।
प्रवचन 48 - एक सार्वभौम धार्मिकता की तैयारी
प्रश्न-सार:
1-ऐसा क्यों है कि करने में तो तनाव रहता ही है न करने में भी तनाव रहता है?