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जरा यह प्रश्न पूछना, 'क्या अस्तित्व प्रार्थना करता है तुमसे?' तो यह बात मूढ़तापूर्ण मालूम पडेगी; तो यह बिलकुल व्यर्थ मालूम पड़ेगी।'क्या अस्तित्व प्रार्थना करता है तुमसे?' तुम ऐसा पूछ भी नहीं सकते; लेकिन प्रार्थना और कुछ भी नहीं है सिवाय प्रेम के परम विकास के।
तुम अस्तित्व के साथ प्रार्थना में होते हो और तुम पाते हो कि चारों ओर से प्रेम के झरने तुम्हारी ओर प्रवाहित हो रहे हैं। तुम तृप्त हो जाते हो। अस्तित्व के पास बहुत कुछ है तुम्हें देने के लिए लेकिन उसके लिए तुम्हें खुला होना होगा। और खुले होना केवल प्रेम में संभव है; तब तुम खुले होते हो, अन्यथा तो तुम बंद रहते हो। और अस्तित्व भी कुछ नहीं कर सकता यदि तुम बंद हो।
चौथा प्रश्न:
क्या उच्चतर अवस्थाओं तक पहुंचना संभव है जब कि व्यक्ति बाहरी स्थितियों और धांतियों के कारण अपने अस्तित्व के कुछ हिस्सों को इनकार कर रहा हो या उनका दमन कर रहा हो?
नहीं, ऐसा असंभव है। तुम मुझसे पूछ रहे हो, 'क्या सीढ़ी के ऊपर केवल आशिक रूप से जाना
संभव है?' तुम्हारा कोई हिस्सा नीचे छूट गया है, तुम्हारा कोई हिस्सा कहीं सीढ़ी पर छूट गया है, और केवल तुम्हारा एक हिस्सा ही पहुंचता है एकदम अंत तक-कैसे संभव है यह? तुम एक इकाई हो, तुम एक अखंड इकाई हो, तुम्हें बांटा नहीं जा सकता है। यही अर्थ है 'व्यक्ति' शब्द का : जिसे बांटा न जा सकता हो। तुम एक व्यक्ति हो। परमात्मा के द्वार तक तुम्हें जाना है अपनी समग्रता में, अखंड; कोई चीज पीछे नहीं छुट सकती।
इसीलिए मेरा बार-बार कहना है कि यदि तुम दमन करते हो अपने क्रोध का तो तुम परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट न हो पाओगे क्योंकि वही तुम कर रहे हो. तुम कोशिश कर रहे हो क्रोध को मंदिर के बाहर छोड़ देने की और मंदिर में प्रविष्ट हो जाने की। कैसे प्रवेश कर सकते हो तुम? क्योंकि कौन बाहर छूट जाएगा क्रोध के साथ? वह तुम्हीं हो। यदि तुम कामवासना को दबाने का प्रयत्न कर रहे हो तो तुम परमात्मा के मंदिर में प्रवेश न कर पाओगे, क्योंकि कामवासना क्या है? वह तुम्ही हो तुम्हारी ही ऊर्जा है। कोई चीज बाहर नहीं छोड़ी जा सकती है। यदि तुम कुछ भी बाहर छोड़ देते हो, तो तुम पूरे के पूरे बाहर छूट जाओगे। तब केवल एक ही संभावना है : तुम रहोगे तो बाहर और तुम स्वप्न देखोगे कि तुम भीतर प्रविष्ट हो गए हो। यही तो तुम्हारे सारे महात्मा कर रहे हैं। वे मंदिर के बाहर