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भांति तुम्हारे पीछे चले, लेकिन प्रेम कभी किसी के पीछे कुत्ते की भांति नहीं चलता। प्रेम तुमसे चाहता है संपूर्ण समर्पण। ऐसा नहीं है कि सी समर्पण करती है पुरुष को या कि पुरुष समर्पण करता है खी को नहीं। दोनों समर्पण करते है प्रेम को। प्रेम परमात्मा है। वास्तव में प्रेम ही एकमात्र परमात्मा है। और यह तुम्हारी मांग करता है, दोनों प्रेमियों की, वे इसके प्रति संपूर्णतया समर्पित हो
जायें।
लेकिन प्रेमी-क्या कर रहे है वे? पति कोशिश करता है कि पत्नी को उसे समर्पण करना चाहिए और पली की कोशिश रहती है कि पति को उसके प्रति समर्पण कर देना चाहिए। तो प्रेम कैसे संभव है? प्रेम कुछ और ही बात है। उसके प्रति दोनों को ही समर्पण करना चाहिए। और दोनों को उसमें विलीन हो जाना चाहिए।
यही बात सबसे बड़ी बाधा बन जाती है। तुम प्रेम नहीं कर सकते तुम्हारे ही कारण। इस भांति दो अहंकारों के साथ होने से, प्रेम असंभव हो जाता है। और यदि प्रेम असंभव हो जाता है तो प्रार्थना असंभव हो जाती है। यदि प्रेम असंभव हो जाता है तो परमात्मा असंभव हो जाता है। वह सब जो सुंदर है, प्रेम द्वारा ही उपजता है। प्रेम की आधारभूमि तो चाहिए ही; अन्यथा तुम अपंग रह जाओगे। और तब तुम इसकी पूर्ति करने की और पूरी करने की कोशिश करते हो दूसरे तरीकों से, लेकिन कोई चीज इसका अभाव पूरा नहीं कर सकती। कोई प्रतिस्थापन अस्तित्व नहीं रखता।
तुम प्रार्थना किये जा सकते हो, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना में कमी होगी उस प्रसाद की, जो तभी आता है जब कोई प्रेम का अनुभवी हो। कैसे कर सकते हो तुम प्रार्थना? तुम्हारी प्रार्थना तो मात्र कुड़ा-करकट ही होगी-एक शाब्दिक घटना। तुम भगवान से कुछ कहोगे और उससे बोलोगे कुछ, और सो जाओगे, लेकिन इसमें कमी रहेगी किसी आवश्यक गुणवत्ता की। कैसे कर सकते हो तुम प्रार्थना जब तुमने प्रेम ही न किया हो तो? प्रार्थना आती है हृदय से। और तुम्हारा हृदय रहा है बंद, इसलिए तुम्हारी प्रार्थना आती है सिर से। सिर नहीं बन सकता है हृदय।
___ इसलिए तो संसार भर में लोग प्रार्थनाएं किये जा रहे है। वे मात्र कुछ शारीरिक भंगिमाएं कर रहे होते है, मौलिक तत्व वहां होता ही नहीं। जडविहीन प्रार्थना होती है वह। प्रेम भूमि तैयार करता है। वह आधार तैयार करता है प्रार्थना के अंकुरित होने के लिए। प्रार्थना और कुछ नहीं सिवाय ऊंचे प्रेम के। वह प्रेम जो व्यक्तियों के पार जाता है, वह प्रेम जो व्यक्ति का अतिक्रमण कर जाता है; वह प्रेम जो विकसित होता है समष्टि होने के लिए ही। वह कोई एक अंश नहीं। तो भी तुम्हें जरूरत है अंश के साथ ही सीखने की।
तुम एकदम छलांग नहीं लगा सकते समुद्र में। तैरना तालाब में ही सीखना। प्रेम एक तालाब है जहां तुम सुरक्षित होते हो। वहां तुम सीख सकते हो, तब तुम जा सकते हो सागरों तक, उछलती लहरों वाले विराट सागरों तक। तुम सीधे ही तो छलांग नहीं लगा सकते विराट सागरों में। यदि तम