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मन ही समझता है, लेकिन यह समझ मन के लिए विष है। इसलिए मन इतने प्रतिरोध डालता है। यह न समझने के ही प्रयत्न किये चला जाता है। यह संदेह बनाता है, यह हर तरह से लड़ता है, यह अपने को बचाता है क्योंकि समझ मन के लिए विष है। यह तुम्हारे लिए अमृत है, लेकिन मन के लिए विष है।
इसलिए जब मैं स्पष्ट स्वप्न से समझने के लिए कहता हूं तो में राम तलब तुम्हारे मन से होता है, न कि तुम से क्योंकि तुम्हे किसी समझ की आवश्यकता नहीं है। तुम समझे ही हुए हो। तुम्ही विवेक हो, प्रज्ञा हो।'तुम्हें' मेरी या किसी की भी मदद की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारे मन को बदलना होगा। और यदि समझ मन में घटित होती है, तो मन मर जायेगा। और मन के साथ वह समझ विलीन हो जायेगी। तब तुम अपनी शुद्धता में होओगे। तब तुम्हारा अस्तित्व दर्पण जैसी विशुद्धता उद्घाटित करेगा। कोई विषय-वस्तु नहीं, अंतर्वस्तु रहित लेकिन आंतरिक अस्तित्व को किसी समझ की आवश्यकता नहीं। वह है ही समझ का सार। उसे समझ की कोई आवश्यकता नहीं है। केवल मन के बादलो को फुसलाना होगा-विलीन होने के लिए।
वास्तव में समझ है क्या? मन को चले जाने के लिए फुसला लेने का एक तरीका है। ध्यान रहे मैं लड़ने के लिए नहीं कहता, मैं फुसलाने के लिए कहता हूं। यदि तुम लड़ते हो, तो मन छोड़कर कभी नहीं जायेगा क्योंकि लड़ाई द्वारा तुम अपना भय दिखाते हो। यदि तुम लडते हो, तो तुम दिखाते हो कि मन कोई ऐसी चीज है जिससे तम डरते हो। बस मन को राज़ी करो। ये सारी शिक्षाए ये सारे ध्यान एक गहरे स्वप्न से मन को फुसलाना है, उस बिंदु तक पहुंचने के लिए, जहां मन आत्मघात कर सके; जहां यह बस, गिर जाये; जहां मन स्वयं एक ऐसा बेतुकापन बन जाता है कि तुम उसे और अधिक नहीं ढो सकते। बस,तब तुम उसे गिरा देते हो। या कि यह कहना ज्यादा उचित है कि मन स्वयं गिर जाता है।
इसलिए जब मैं बोलता हूं तब मैं तुम में स्पष्ट समझ निर्मित करने के लिए तुम्हें संबोधित करता हूं; मैं तुम्हारे मन को संबोधित कर रहा होता हूं। और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। केवल तुम्हारे मन तक पहुँच हो सकती है क्योंकि तुम अनुपलब्ध हो। तुम भीतर बहुत गहरे छिपे हुए हो, और केवल मन द्वार पर है। मन को राजी करना पड़ता है द्वार को छोड़ने के लिए_ और द्वार को खुला रहने देने के लिए। तब तुम सुलभ हो जाओगे।
मै संबोधित कर रहा हूं मन को-तुम्हारे मन को, न कि तुमको। यदि मन गिर जाये, तो संबोधित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तब मैं मौन बैठ सकता हूं और तुम समझ जाओगे। तब संबोधित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मन को शब्दों की जरूरत है। मन को विचारों की आवश्यकता है। मन को कुछ ऐसी मानसिक चीज चाहिए जो इसे राजी कर सके। जब बुद्ध या पतंजलि या कृष्ण तुमसे बात करते हैं, तो वे तुम्हारे मन को संबोधित करके कह रहे हैं।