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'वह स्थान इतना पवित्र है और मै इतनी पापी हूं, वह ऐसा सोचती। और बहुत बार उसने चाहा साधु के चरणों को छू लेना, लेकिन उसने सोचा कि यह अच्छा न होगा। मैं इतनी योग्य नहीं कि उनके चरणों को स्पर्श करूं, वह सोचती रहती तो जब साधु वहां से गुजरता, वह केवल धूल संजो लेती उस मार्ग की जहां उसके चरण पड़े थे, और वह पूजा करती उस चरणरज की, उस धूल की
बाहर से तुम क्या हो इसका सवाल नहीं जो तुम्हारा आंतरिक सम्मोहन है वह तुम्हारे जीवन के भावी क्रम को निश्चित करेगा। बुराई के प्रति तटस्थ रहना । तटस्थता का उपेक्षा का अर्थ भावशून्यता नहीं है, इतना ध्यान रहे। ये सूक्ष्म भेद हैं। तटस्थता का अर्थ भावशून्यता नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि तुम अपनी आंखें मींच लो। क्योंकि अगर तुम उन्हें मींचते भी हो तो एक दृष्टिकोण बना लेते हो, एक मनोवृत्ति इसका अर्थ यह नहीं होता कि परवाह ही मत करो, क्योंकि वहां भी, एक सूक्ष्म निंदा उसमें छुपी हुई होती है। तटस्थता इतना ही सूचित करती है, 'तुम कौन होते हो निर्णय करने वाले, मूल्यांकन करने वाले? तटस्थता के साथ तुम सोचते हो तुम्हारे स्वयं के बारे में, 'कौन हो तुम? कैसे बता सकते हो तुम कि क्या बुरा है और क्या अच्छा है? कौन जानता है ? "
जीवन इतना संश्लिष्ट है कि बुराई अच्छाई बन जाती है और अच्छाई बुराई बन जाती है। वे परिवर्तित होती रहती है। पापी को परम सत्य तक पहुंचते पाया गया है, साधु-संतों को नरक में फेंक दिया पाया गया है। तो कौन जानता? और तुम कौन हो ? कौन पूछ रहा है तुमसे? तुम अपने को ही सम्हालो। यदि तुम यह भी कर सको तो तुमने बहुत कर लिया। तुम हो जाओ अधिक सचेत और जागरूक; तब तटस्थता तुम तक चली आती है बिना किसी पूर्वविचार के
ऐसा हुआ कि विवेकानंद अमरीका जाने से पहले और संसार - प्रसिद्ध व्यक्ति बनने से पहले, जयपुर के महाराजा के महल में ठहरे थे वह महाराजा भक्त था विवेकानंद और रामकृष्ण का । जैसे कि महाराजा करते है, जब विवेकानंद उसके महल में ठहरने आये, उसने इसी बात पर बड़ा उत्सव आयोजित कर दिया। उसने स्वागत उत्सव पर नाचने और गाने के लिए वेश्याओं को भी बुला लिया। अब जैसा महाराजाओं का चलन होता है, उनके अपने ढंग के मन होते हैं वह बिलकुल भूल ही गया कि नाचने-गाने वाली वेश्याओं को लेकर संन्यासी का स्वागत करना उपयुक्त नहीं है। पर कोई और ढंग वह जान सकता नहीं था। उसने हमेशा यही जाना था कि जब तुम्हें किसी का स्वागत करना हो, तो शराब, नाच-गान, यही सब चलना चाहिए।
विवेकानंद अभी परिपक्व न हुए थे, वे अब तक पूरे संन्यासी न हुए थे। यदि वे पूरे संन्यासी होते, यदि तटस्थता बनी रहती, तो फिर कोई समस्या ही न रहती; लेकिन वे अभी भी तटस्थ नहीं थे वे अब तक उतने गहरे नहीं उतरे थे पतंजलि में युवा थे, और बहुत दमनात्मक व्यक्ति थे। अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे। जब उन्होंने वेश्याओं को देखा तो बस उन्होंने अपना कमरा बंद कर लिया और उससे बाहर आते ही न थे।