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उसमें श्रद्धा नहीं रख सकते। कुछ गलत हो गया; तुम उस पर आस्था नहीं रख सकते। लेकिन म कहना कि गुरु गलत है तुम जानते नहीं केवल आगे बढ़ जाना उतना काफी है। कहीं और खोजना
यदि तुम निर्णय देना, दोष देना, निष्कर्ष निकालना आरंभ करते हो तो तुम बंद हो जाओगे। और आंखें जो निर्णय लेती हैं, कभी भी श्रद्धा न कर पायेंगी। एक बार तुम निर्णय के शिकार बन गये तो तुम कभी भरोसा न कर पाओगे क्योंकि तुम हमेशा कुछ न कुछ खोज लोगे जो कि तुम्हें आस्था न करने देगा; जो तुम्हें एक संकीर्णता देगा।
इसलिए यदि तुम गुरु में श्रद्धा नहीं करते तो उसे जांचो मत बस आगे बढ़ जाओ। यदि तुम बढ़ते रहो, घटना घटित होकर ही रहती है-किसी दिन कहीं, किसी क्षण में क्योंकि ऐसे क्षण होते हैं, जब तुम अति संवेदनशील होते हो और गुरु प्रवाहित हो रहा होता है और तुम इसके साथ कुछ कर नहीं सकते। तुम अति संवेदनशील होते हो इसलिए तुम मिलते हो । देश, स्थान और समय के एक विशेष बिंदु पर यह भेंट घटित होती है। तब सत्संग संभव हो जाता है।
सत्संग का अर्थ है : गुरु के निकट की सन्निधि। उस व्यक्ति के निकट होना जिसने जाना है क्योंकि उसने जान लिया है, वह प्रवाहित हो सकता है वह प्रवाहित हो ही रहा है। सूफी कहते हैं कि इतना काफी है; गुरु के निकट उसके सान्निध्य में होना काफी है। बस उसके पास बैठना, उसके करीब ही चलना उसके कमरे के बाहर बैठ जाना, रात में उसकी दीवार के पास बैठे जागना, उसे याद करते रहना काफी है। लेकिन इसमें बरसों लग जाते हैं- प्रतीक्षा के वर्ष । और वह तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेगा। वह हर ढंग की बाधा खड़ी करेगा। वह तुम्हें बहुत से अवसर देगा कि तुम उसके बारे में निर्णय दो वह अपने बारे में बहुत-सी अफवाहें फैलाएगा जिससे कि तुम सोच सको कि वह गलत है और तुम आग सको। वह हर तरह से तुम्हारी मदद करेगा निकल भागने में इसलिए पहले तुम्हें इन सब बाधाओं को पार करना होगा। और ये आवश्यक हैं क्योंकि सस्ती आस्था किसी क की नहीं। लेकिन वह आस्था जो मंजी हुई आस्था है, जिसने लंबी प्रतीक्षा की है, एक मजबूत चट्टान बन गयी है-और केवल तभी गहनतम परतो से उतरा जा सकता है।
पतंजलि नहीं कहते कि तुम्हें विश्वास करना ही है। विश्वास बौद्धिक है। तुम हिंदुत्व में विश्वास करते हो लेकिन यह आस्था नहीं है। यह तो बस ऐसा है कि तुम संयोगवश हिंदू परिवार में पैदा हो गये, इसलिए तुमने अपने बचपन से ही हिंदुत्व के बारे में सुन लिया है तुम इससे सरोबोर हो चुके हो। इसका गहरा प्रभाव तुम्हारे सिद्धांतो, धारणाओं, चिंतनों पर पड़ा है। वे तुम्हारे रक्त का हिस्सा बन गये हैं। वे तुम्हारे अचेतन में प्रविष्ट हो चुके हैं। तुम उनमें विश्वास करते हो। लेकिन यह विश्वास किसी काम का नहीं क्योंकि उसने तुम्हें स्वपांतरित नहीं किया। वह मरी हुई चीज है, उधार ली हुई।