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करना। और जानने में क्या कोई बहुत ज्यादा कठिनाई होती है? कठिनाई क्या है? यह इतना सुगम है जानना कि कोई बात मन की जरूरत ही है। शरीर से पूछ भर लेना; शरीर में जांच-पड़ताल कर लेना; जाओ और ढूंढ लो जड़ को। क्या वहां कोई जड़ है इसकी?
तुम नामसमझ मालूम पड़ोगे। तुम्हारे सारे राजा और सम्राट नासमझ हैं। जोकर हैं-जरा देखना! हजारों पदकों से, तमगों से सजे हुए, वे छू जान पड़ते हैं! क्या कर रहे हैं वे? और इसके लिए उन्होंने बहुत लंबा दुख उठाया है। इसे प्राप्त करने को वे बहुत तकलीफों से गुजरते रहे हैं और फिर भी वे तकलीफ में ही हैं। उन्हें होना ही होता है दुखी। मन है नरक का द्वार, और द्वार कुछ नहीं है सिवाय इच्छा के। मार दो इच्छाओं को। तुम उनसे कोई रक्त रिसता हुआ नहीं पाओगे क्योंकि वे रक्तविहीन होती हैं।
लेकिन आवश्यकता को मारते हो तो रक्तपात होगा। आवश्यकता को मार दो, और तुम्हारा कोई हिस्सा मर जायेगा। इच्छा को मार दो, और तुम नहीं मरोगे। बल्कि इसके विपरीत, तुम ज्यादा मुक्त हो जाओगे। इच्छाओं को गिराने से ज्यादा स्वतंत्रता चली आयेगी। यदि तुम इच्छाओं से शून्य और आवश्यकता युक्त बन सकते हो, तो तुम मार्ग पर आ ही चुके हो। और तब स्वर्ग बहुत दूर नहीं
आज इतना ही।
प्रवचन 17 - ध्यान की बाधाएं
दिनांक 7 जनवरी 1975;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
योगसूत्रः
व्याधिख्यानसंशयप्रमादालस्थाविरति भातिदर्शन
अलब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चितविक्षेपास्तेऽन्तरायाः।। 3011