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भगवान बना देता है। समर्पण तुम्हें आख देता है। और हर चीज जो इस आख तक आती है दिव्य हो जाती है। दिव्यता, भगवत्ता समर्पण दवारा दी गयी गणवत्ता है।
भारत में ईसाई, यहूदी और मुसलमान हिंदुओं पर हंसते हैं क्योंकि वे वृक्ष की पूजा कर सकते है और वे पत्थर की पूजा कर सकते है। यह चाहे गढ़ा हुआ भी न हो; यह चाहे मूर्ति भी न बना हो। वे सड़क के किनारे का पत्थर खोज सकते हैं और फौरन इसी को ईश्वर बना सकते है। किसी कलाकार की आवश्यकता नहीं, किसी मूल्यवान प्रकार के पत्थर की भी नहीं;संगमरमर की भी नहीं। कोई साधारण पत्थर जो उपेक्षित हो चुका हो, वह भी काम दे देगा। शायद ऐसा हो कि यह पत्थर बाजार में न बिक सकता हो और इसीलिए यह वहां सड़क के किनारे पड़ा हुआ हो, लेकिन हिंदू तुरंत इसको ईश्वर बना सकते हैं। यदि तुम समर्पण कर सको तो यह दिव्य हो जाता है। समर्पण की दृष्टि दिव्य के अतिरिका कोई दूसरी चीज खोज ही नहीं सकती।
गैर-हिंदू हंसते रहे; वे नहीं समझ सकते थे। वे समझते हैं कि ये लोग पत्थर-पूजक हैं, मूर्तिपूजक। वे नहीं हैं। हिंदुओं को समझने में गलती हुई। वे मूर्तिपूजक नहीं हैं। उन्होंने कुंजी खोल ली है, और वह कुंजी यह है कि अगर समर्पण कर दो तो तुम किसी चीज को दिव्य बना सकते हो। और यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम लाखों जन्मों तक ईश्वर को खोजते रह सकते हो,लेकिन तुम उससे कभी न मिलोगे, क्योंकि तुम्हारे पास वह गुणवत्ता नहीं है जिसका मिलन होता है; जो मिल सकती है, जो पा सकती है। तो प्रश्न है आत्मगत समर्पण का, समर्पण करने वाले विषय या पात्र का नहीं।
लेकिन निस्संदेह समस्याएं हैं। तुम ऐसे अकस्मात पत्थर को समर्पण नहीं कर सकते क्योंकि तुम्हारा मन कहे चला जाता है, 'यह तो मात्र एक पत्थर है। कर क्या रहे हो तुम?' और अगर मन कहता ही जाये, 'यह तो पत्थर ही है, इस प्रकार क्या कर रहे हो तुम?' – तो तुम नहीं कर सकते समर्पण क्योंकि समर्पण को आवश्यकता होती है तम्हारी समग्रता की।
___ इसीलिए गुरु की सार्थकता है। गुरु का अर्थ है वह, जो सीमा पर खड़ा हुआ-मनुष्य और दिव्यता की सीमा पर। वह जो तुम्हारी तरह मानवप्राणी रहा है, लेकिन जो अब तुम्हारी भांति नहीं रहा। वह जिसे कुछ और घट गया है, जो अतिरिका है-एक मनुष्य और कुछ और। इसलिए यदि तुम उसके अतीत को देखते हो, तो वह तुम्हारी तरह ही होता है लेकिन यदि तुम उसके वर्तमान और भविष्य को देखते हो, तब तुम उस 'कुछ और' को, अतिरिका को देखते हो। तब वह दिव्यता होता है।
पत्थर को, नदी को समर्पण करना कठिन है, बहुत-बहुत कठिन। यदि गुरु को समर्पण करना भी इतना कठिन है तो पत्थर को समर्पण करना जरूर बहुत कठिन होगा ही; क्योंकि जब कभी तुम गुरु को देखते हो तो फिर तुम्हारा मन कह देता है, 'यह मेरी तरह का मनुष्य-प्राणी है, तो उसे समर्पण क्यों करना?' तुम्हारा मन वर्तमान को नहीं देख सकता; मन केवल अतीत को देख सकता है