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खोजी ही है खोज्य, यात्री स्वयं ही है मंजिल तुम्हें कहीं और नहीं पहुंचना है तुम्हें केवल स्वयं तक पहुंचना है। ऐसा केवल एक क्षण में घट सकता है; एक क्षणांश भी काफी होता है। यदि बीज को फूल होना होता, तब तो अनंतकाल पर्याप्त न था क्योंकि फूल है परमात्मा । यदि परमात्मा तुममें पहले से ही है, तो बस मुड़कर देखना, जरा भीतर झांक लेना और यह घट सकता है।
फिर पतंजलि की जरूरत क्या? पतंजलि की जरूरत है तुम्हारे कारण। तुम इतना लंबा समय लेते हो तुम्हारी नींद में से निकलने के लिए! तुम इतना लंबा समय लेते हो तुम्हारे सपनों में से बाहर आने के लिए! तुम इतने उलझे हुए हो सपनों में! तुमने अपना इतना कुछ लगा दिया है सपनों में, कि इसीलिए समय की जरूरत है। समय की जरूरत इसलिए नहीं है कि बीज को फूल होना है, समय की जरूरत इसलिए है क्योंकि तुम अपनी आंखें नहीं खोल सकते। तुम बंद आंखों के इतने ज्यादा आदी हो गये हो कि यह एक गहरी आदत बन चुकी है। केवल यही नहीं - तुम बिलकुल भूल गये हो कि तुम बंद आंखों सहित जी रहे हो। इसे तुम बिलकुल ही भूल गये हो तुम सोचते हो, 'कैसी नासमझी की बात है यह! मेरी आंखें तो खुली ही हुई हैं।' और तुम्हारी आंखें हैं बंद।
यदि मैं कहता हूं 'अपने सपनों से बाहर आ जाओ', तो तुम कह देते हो, 'मैं जागा ही हुआ लेकिन यह भी एक सपना है। तुम सपना ले सकते हो कि तुम जागे हु हो; तुम सपना ले सकते हो कि तुम्हारी आंखें खुली हैं। तब अधिक समय की जरूरत होगी। ऐसा नहीं है कि फूल पहले से ही नहीं खिला हुआ था, बल्कि यह तुम्हारे जाग जाने की बात ही इतनी कठिन थी।
तुम्हारे बहुत सारे न्यस्त स्वार्थ हैं इनको समझ लेना है। अहंकार बुनियादी स्वार्थ है। यदि तुम अपनी आख खोल लो, तो तुम तिरोहित हो जाते हो आख का खुलना मृत्यु की भांति प्रतीत होता है। ऐसा है इसीलिए तुम इसके बारे में बातें करते हो, तुम इसकी चर्चा सुनते हो, तुम इसके बारे में सोचते हो, लेकिन तुम अपनी आख कभी नहीं खोलते क्योंकि तुम भी जानते हो कि यदि तुम वास्तव में अपनी आख खोल लो तो तुम मिट जाओगे। तब कौन होओगे तुम? एक न-कुछ। एक शून्यता । शून्यता यहां है, यदि तुम अपनी आंखें खोल लो तो। इसलिए यह सोचना बेहतर होता है कि तुम्हारी आंखें खुली ही हुई हैं और तब तुम 'कुछ' बने रहते हो।
अहंकार पहला न्यस्त स्वार्थ है अहंकार केवल तभी बना रह सकता है जब तुम सोये हु हो । जैसे कि सपने केवल तभी बने रह सकते हैं जब तुम सोये हुए हो - आध्यात्मिक रूप से सोये हुए, अस्तित्वगत रूप से सोये हुए आंखें खोलो अपनी पहले तुम मिटते हो; फिर परमात्मा प्रकट होता है—यह है समस्या । और तुम भयभीत हो कि तुम कहीं मिट न जाओ। लेकिन वही है द्वार। तो तुम इसके बारे में चर्चा सुनते हो, तुम सोचते हो इसके बारे में, लेकिन तुम स्थगित किये चलते कल, और कल और कल के लिए।