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अस्तित्व संपूर्ण है, कुछ करने की जरा भी कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम इसे समझ लो तो समर्पण पर्याप्त है। किसी प्रयास किसी प्राणायाम, भस्त्रिका, किसी शीर्षासन, योगासन, या ध्यान या
कोई विधि-किसी चीज की जरूरत नहीं है। यदि तुम इसे समझ लो कि अस्तित्व जैसा है, बस पूर्ण है...। भीतर खोज लो, बाहर खोज लो हर चीज इतनी पूर्ण है कि उत्सव मनाने के अतिरिका नहीं किया जा सकता। वह व्यक्ति, जो समर्पण करता है, उत्सव मनाना आरंभ कर देता है।
कुछ
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आज इतना ही।
प्रवचन 14 - बीज ही फूल है
दिनांक 4 जनवरी, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना ।
प्रश्न सार:
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1-कृपया समझायें कि समय के अंतराल के बिना एक बीज कैसे विकसित हो सकता है?
2- क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही है?
3 – क्या सतोरी के पश्चात गुरु की आवश्यकता होती है?
4-श्रवण की कला क्या होती है? कृपया मार्गदर्शन करें।
पहला प्रश्न: