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करोगे, तुम निराशा नहीं अनुभव करोगे। लेकिन तुम परिपूर्णता भी न अनुभव करोगे। निषेध गिर जायेंगे, कांटे गिर जायेंगे, लेकिन फूल नहीं उगेंगे।
यह मुमुक्ष की पहली अवस्था होती है। तुम बहुत सारे लोग पा सकते हो जो वहां अटक गये हैं। तुम एक निश्चित गुणवत्ता अनुभव करोगे उनमें। वे प्रतिक्रिया नहीं करते, वे क्षुब्ध नहीं होते, तुम उन्हें क्रोधी नहीं बना सकते, तुम उन्हें चिंता में नहीं डाल सकते। उन्होंने कोई चीज प्राप्त कर ली है, लेकिन तो भी तुम अनुभव करोगे कि किसी चीज की कमी है। वे निश्चित नहीं होते। चाहे क्रोधी न हों लेकिन उनमें करुणा नहीं होती। हो सकता है वे तुम पर क्रोधित न हों, लेकिन वे क्षमा नहीं कर सकते। यह भेद सूक्ष्म है। वे क्रोधित नहीं होते, यह सही है। लेकिन उनके अक्रोधी होने में भी कोई क्षमा नहीं होती। वे कहीं अटके हुए हैं।
वे तुम्हारी, तुम्हारे अपमान की चिंता नहीं करते, लेकिन वे एक तरह से संबंधों से कटे हुए हैं। वे बांट नहीं सकते। क्रोधित न होने के प्रयत्न में, वे संबंधों से बाहर हो गये हैं। वे दवीप की भांति हो गये हैं- अलग- थलग। और जब तुम पृथक भू-प्रदेश की भांति होते हो, तब तुम उखड़े हुए होते हो। तुम खिल नहीं सकते, तुम प्रसन्न नहीं हो सकते, तुम स्वास्थ्य नहीं पा सकते। यह एक निषेधात्मक उपलब्धि होती है। कुछ फेंक दिया गया है, लेकिन प्राप्त कुछ नहीं हुआ है। निस्संदेह मार्ग स्पष्ट होता है। कुछ फेंकना भी बहुत अच्छा होता है क्योंकि अब संभावना बनी रहती है कि तुम कुछ विधायक चीज प्राप्त कर सकते हो।
पतंजलि ऐसे व्यक्तियों को मृद् कहते हैं। यह उपलब्धि की प्रथम अवस्था होती है, और यह निषेधात्मक होती है। तुम भारत में बहुत संन्यासियों को पाओगे कैथोलिक मठों में बहुत सारे संतों को पाओगे, जो प्रथम अवस्था पर अटक गये हैं। वै अच्छे लोग हैं, लेकिन उन्हें तुम उदास, नीरस पाओगे। क्रोधित न होना बहुत अच्छा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। कुछ चूक रहा है; कुछ विधायक नहीं घटा है। वे खाली पात्र हैं। उन्होंने अपने को खाली कर दिया है, लेकिन किसी तरह वे फिर भर नहीं गये। उच्चतर उतरा नहीं है, लेकिन निम्नतर फेंक दिया गया है।
फिर द्वितीय श्रेणी की मुमुक्षा होती है-सम्यक खोजी की द्वितीय अवस्था, जो अपना दोतिहाई लगा देता है प्रयास में। अभी समग्र नहीं है, वह मध्य में ही होता है। मध्य में होने से ही पतंजलि उसे कहते हैं मध्य- 'मध्यस्थ व्यक्ति।' वह कुछ प्राप्त कर लेता है। उसमें प्रथम अवस्था वाला व्यक्ति मौजूद होता है, लेकिन कुछ और ज्यादा जुड़ गया है। वह शांत होता है-मौन, शांत सुव्यवस्थित। जो कुछ संसार में घटता है उसे प्रभावित नहीं करता। वह अप्रभावित बना रहता है, निर्लिप्त। वह शिखर की भांति हो जाता है-बहुत शांत।
यदि तुम उसके निकट पहुंचते हो तो तुम उसकी शांति तुम्हारे चारों ओर छा रही अनुभव करोगे। उसी भांति, जैसे कि जब तुम बाग में जाते हो और ठंडी बयार और फूलों की सुगंध और