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छह दिन तुम अलग होते हो, फिर रविवार को तुम चर्च में प्रवेश करते हो और तुम मुखौटा चढ़ा लेते हो। जरा देखना,लोग चर्च में कैसे व्यवहार करते हैं। इतनी नरमाई से, इतने मानवीय होकर-वही लोग! अगर एक खूनी भी चर्च में आ जाता है और प्रार्थना करता है, तो उसके चेहरे को देखना-वह इतना सुंदर और निर्दोष लगता है। और इसी आदमी ने कत्ल किया है। चर्च में तुम्हारे पास उपयोग करने को एक उपयुक्त चेहरा होता है, और तुम जानते हो उसे कैसे उपयोग करना है। यह एक संस्कारबद्धता रही है। बिलकुल बचपन से ही इसे तुम्हें दे दिया गया है।
विश्वास दिया जाता है; आस्था एक विकास है। तुम वास्तविकता से साक्षात्कार करते हो, तुम वास्तविकता का सामना करते हो, तुम वास्तविकता को जीते हो, और धीर-धीरे तुम एक समझ तक आ पहुंचते हो कि संदेह ले जाता है नरक तक, दुख तक। जितना ज्यादा तुम संदेह करते हो, उतने ज्यादा दुखी तुम हो जाते हो। यदि तुम पूरी तरह से संदेह कर सकी, तो तुम संपूर्ण दुख में होओगे। अगर तुम संपूर्ण दुख में नहीं हो, तो इसी कारण कि पूरी तरह संदेह नहीं कर सकते। तुम अभी आस्था रखते हो। एक नास्तिक भी आस्था रखता है। वह व्यक्ति भी, जो संदेह करता है कि ईश्वर है या नहीं, वह भी आस्था रखता है,वरना वह जी नहीं सकता; जिंदगी असंभव हो जायेगी।
यदि संदेह समग्र हो जाता है, तो तुम एक पल भी न जी पाओगे। तुम कैसे सांस ले सकते हो यदि तुम संदेह करो? यदि तुम वास्तव में संदेह करते हो, तो कौन जानता है कि सांस जहरीली नहीं है। कौन जानता है कि लाखों कीटाण भीतर नहीं पहुंच रहे! कौन जानता है कि कैंसर नहीं आ रहा सांस द्वारा। अगर तुम वास्तव में संदेह करते हो, तो तुम सांस भी नहीं ले सकते। तुम क्षण भर को नहीं जी सकते हो, तुम फौरन मर जाओगे। संदेह आत्मघात है। पर तुम कभी संपूर्णतया संदेह नहीं करते, अत: तुम विलंब किये जाते हो। तुम देर लगाते रहते हो; किसी तरह तुम चलाये चलते हो। लेकिन तुम्हारा जीवन समग्र नहीं होता। जरा सोचो अगर समग्र संदेह आत्मघात होता है, तो समग्र श्रद्धा एक परम जीवन की संभावना है।
यही है जो घटता है श्रद्धावान को। वह श्रद्धा करता है। और जितनी ज्यादा वह श्रद्धा करता है, उतना ज्यादा वह श्रद्धा करने के योग्य बनता है। जितना ज्यादा वह श्रद्धा रखने में सक्षम बनता है, उतना ज्यादा जीवन खुलता है। वह ज्यादा अनुभव करता है, वह ज्यादा जीता है, पूर्णरूपेण जीता है। जीवन एक प्रामाणिक आनंद बन जाता है। अब वह अधिक श्रद्धा कर सकता है। ऐसा नहीं है कि वह धोखा नहीं खाता है। अगर तुम श्रद्धा करते हो, इसका मतलब यह नहीं कि कोई तुम्हें धोखा देने ही वाला नहीं। वस्तुत: ज्यादा लोग तुम्हें धोखा देंगे क्योंकि तुम असुरक्षित बन जाते हो। अगर तुम श्रद्धा करते हो, तो ज्यादा लोग तुम्हें धोखा देंगे, लेकिन कोई तुम्हें दुखी नहीं बना सकता; यही समझने की बात है। वे धोखा दे सकते हैं, वे तुम्हारी चीजें चुरा सकते हैं, वे रुपया उधार ले सकते हैं और उसे कभी नहीं लौटाते, लेकिन कोई तुम्हें दुखी नहीं बना सकता। यह असंभव हो जाता है। अगर वे तुम्हें मार भी डालें तो भी वे तुम्हें दुखी नहीं बना सकते।