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प्रवचन 2 - शिष्यत्व और सदगुरू की खोज
दिनांक, 26 दिसम्बर, 1973; संध्या।
वुडलैण्ड्स
, बंबई।
प्रश्न सार:
1-योग-पथ पर चलने के लिए क्या निराशा और विफलता का भाव नितान्त जरूरी है?
2-क्या योग एक नास्तिक वादी दर्शन है?
3-योग के मार्ग पर शिष्यत्व की बड़ी महत्ता है, लेकिन एक नास्तिक शिष्य कैसे हो सकता है?
4-यदि योग आस्था की मज़ा नहीं करता है तो शिष्य का समर्पण कैसे हो?
5-क्या सत्संग का अर्थ सदगुरु से शारीरिक निकटता है? शारीरिक दूरी से क्या शिष्य हानि में रहता
6-मन को यदि समाप्त होना है, तो आपके प्रवचनों को कौन समझेगा?
7-अगर योग आंतरिक रूपांतरण की प्रक्रिया है तो यह बिना उददेश्य के कैसे संभव होगा?