________________ 1-हमारे मन की समस्याओं को, आप मन के पार होकर भी कैसे समझते हैं? 2-योगी बनने के लिए हठीले योदधा के भाव की क्या जरूरत है? 3-अगर वैराग्य ही मका कर सकता है तो फिर योगानुशासन का क्या प्रयोजन है? पहला प्रश्न: यह कैसे संभव हुआ है कि आपने हमारे जीने के ढंग को आप जिसके परे जा हैं इतने सही रूप में और हर ब्योरे में वर्णित कर दिया है जबकि हम इसके प्रति इतने अनजान रहते हैं? क्या यह विरोधाभासी नहीं है? यह विरोधाभासी लगता है, पर यह है नहीं। तुम समझ सकते हो, केवल तभी जब तुम परे जा चुके होते , ज्ञ। जब तुम एक निश्चित मनोदशा में होते हो, तब तुम नहीं समझ सकते मन की वह दशा, क्योंकि तुम उससे बहुत ज्यादा अंतर्ग्रस्त होते हो, उससे बहुत तादात्म्य बनाये हुए होते हो। समझने के लिए रिक्त स्थान की आवश्यकता होती है, दूरी की जरूरत होती है। और वहां दूरी कोई है नहीं। केवल जब तम मन की अवस्था का अतिक्रमण करते हो, तम उसे समझने के योग्य होते हो क्योंकि तब दूरी होती है वहां। तब तुम दूर अलग खड़े हुए होते हो। अब तुम तादात्थ बनाये बिना देख सकते हो। वहां दृश्य है अब, परिप्रेक्ष्य। जब तुम प्रेम में पड़ते हो, तब तुम प्रेम को नहीं समझ सकते। शायद तुम उसे अनुभव कर लो, लेकिन तुम उसे समझ नहीं सकते। तुम्हारा होना उसमें इतना ज्यादा है, और समझने के लिए अलगाव, विरका अलगाव की आवश्यकता रहती है। समझ के लिए तुम्हें जरूरत है निरीक्षक होने की। जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो निरीक्षक पिछड़ जाता है। तुम एक कर्ता बन चुके हो। तुम एक प्रेमी हो। तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। केवल जब तुम प्रेम का अतिक्रमण करते हो, जब तुम संबोधि पाते हो और प्रेम के पार जा चुके होते हो, तब तुम समझ पाओगे उसे।