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आज इतना ही।
प्रवचन 9 -स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाओ
दिनांक 3 जनवरी, 1974; संध्या। वुडलैण्ड्स, बंबई। योगसूत्र:
दृष्टानुअविकविषयवितृष्णस्थ वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।। 15।।
वैराग्य, निराकांक्षा की 'वशीकारसंज्ञा' नामक पहली अवस्था है-ऐंद्रिक सुखों की तृष्णा में, सचेतन प्रयास दवारा, भोगासक्ति की समाप्ति।
तत्पर पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।। 16।।
वैराग्य, निराकांक्षा की अंतिम अवस्था है-पुरुष के, परम आत्मा के अंतरतम स्वभाव को जानने के कारण समस्त इच्छाओं का विलीन हो जाना।
अभ्यास और वैराग्य-सतत आंतरिक अभ्यास और इच्छारहितता-ये दो बुनियादी शिलाएं हैं
पतंजलि के योग की। सतत आंतरिक प्रयास की आवश्यकता है, इस कारण नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इस कारण कि आदतें गलत हैं। लड़ाई प्रकृति के विरुद्ध नहीं है, लड़ाई आदतों के विरुद्ध है। प्रकृति मौजूद है, हर क्षण उपलब्ध है तुममें प्रवाहित होने के लिए, तुम्हारे उसके साथ एक होने के