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उदाहरण के लिए, एक बच्चा क्रोध में होता है; हम उसे कह देते हैं, 'क्रोध बुरा है। क्रोध
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मतकरो 'लेकिन क्रोध स्वाभाविक है, और केवल कह देने से कि, 'क्रोध मत करो, तुम क्रोध को नष्ट नहीं कर रहे। हम बच्चे को सिखा रहे हैं केवल उसे दबा देना। और दमन दुख बन जायेगा क्योंकि जो कुछ भी दबाया जाता है, जहर बन जाता है। वह शरीर के रसायनों में ही घूमता-फिरता रहता है, वह विषाक्त होता है। और उसे क्रोधित न होने की बात लगातार सिखाने के द्वारा हम उसे अपना शरीर विषमय करना सिखा रहे होते है।
एक चीज जो हम उसे नहीं सिखा रहे वह हैं, क्रोधित कैसे न हुआ जाये। हम तो बस उसे सिखा रहे है कि क्रोध को किस तरह दबाया जाये। और हम उसे बाध्य कर सकते हैं क्योंकि वह हम पर आश्रित है। वह निस्सहाय है, उसे हमारे पीछे चलना पड़ता है। यदि हम कहते, 'क्रोध मत करो, तो वह मुस्करा देगा। वह मुस्कराहट झूठी होगी। भीतर तो वह कुलबुला रहा है, भीतर वह घबराहट में है, वहां भीतर आग है और वह बाहर मुस्करा रहा है।
एक छोटा बच्चा ! और हम उसे पाखण्डी बना रहे है। वह झूठा और विखण्डित बन रहा है। वह जानता है कि उसकी मुस्कान नकली है और उसका क्रोध वास्तविक है, लेकिन वास्तविक को दबाना पड़ता है और अवास्तविक को जबरदस्ती लाना पड़ता है। वह हिस्सों में बंट जायेगा और धीरे-धीरे वह खंडित होना इतना गहरा हो जायेगा, वह भेद इतना गहरा हो जायेगा, कि जब कभी वह मुस्कराता है वह एक झूठी मुस्कान मुस्करायेगा ।
और यदि वह प्रामाणिकता पूर्वक क्रोधी नहीं हो सकता, तब वह किसी चीज के बारे मेर प्रामाणिक नहीं हो पायेगा। क्योंकि तब प्रामाणिकता निंदित हो जाती है। वह अपना प्रेम अभिव्यक्त नहीं कर पायेगा, वह अपना आनंदोल्लास अभिव्यक्त नहीं कर पायेगा। वह भयभीत हो जायेगा यथार्थ के प्रति। यदि तुम यथार्थ के एक हिस्से की निंदा करते हो, तो सारी वास्तविकता निंदित हो जाती है। क्योंकि वास्तविकता बांटी नहीं जा सकती और एक बच्चा बांट नहीं सकता।
एक बात तो निश्चित है - बच्चा समझ चुका है कि वह स्वीकृत नहीं हुआ। जैसा कि वह है, वह प्रीतिकर नहीं है। वास्तविक कुछ बुरा ही है, इसलिए उसे नकली होना ही है। उसे चेहरों, मुखौटों का प्रयोग करना ही है। यदि एक बार वह यह सीख लेता है, तो सारा जीवन नकली दिशा की ओर बढ़ने लगेगा। और असत्य केवल दुख की ओर ही ले जा सकता है। असत्य सुख की ओर नहीं ले जा सकता। केवल सत्य, प्रामाणिक सत्य तुम्हें आनंद की ओर ले जा सकता है, जीवन के शिखर अनुभवों की ओर प्रेम, खुशी, ध्यान, या जो कुछ नाम तुम दे सकते हो।
हर कोई इसी ढांचे में पला है, इसलिए तुम सुख के लिए लालायित रहते हो। लेकिन जो कुछ भी तुम करते हो वह दुख निर्मित करता है। सुख की ओर बढ़ने का पहला कदम है, स्वयं को स्वीकार कर लेना। लेकिन स्वयं को स्वीकार करना समाज तुम्हें हरगिज नहीं सिखाता। यह तुम्हें सिखलाता है