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तुम चींटियों को नहीं भड़का सकते देश की खातिर लड़ने के लिए। तुम उन्हें नहीं भड़का सकते क्योंकि वे नहीं जानतीं कि राष्ट्र क्या है। इसलिए जीव-जंतुओं के राज्य में कोई युद्ध नहीं होता। वहां कोई युद्ध नहीं, झंडे नहीं, मंदिर नहीं, मसजिद नहीं। और यदि पश् हमारा अवलोकन कर सकते, तो उन्हें सोचना ही पड़ता कि मनुष्य शब्दों के साथ मस्त क्यों है! क्योंकि लड़ाइयां निरंतर होती रहती हैं और लाखों लोग मार दिये जाते हैं केवल शब्दों के कारण!
कोई यहदी है इसलिए उसे मार दो। केवल 'यहदी' शब्द के कारण ही। लेकिन लेबल बदल दो, नाम बदल दो, उसे ईसाई कहो, तब उसे मारने की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन वह स्वयं लेबल बदलने को राजी नहीं होता। वह कहेगा, 'मैं मर जाना ज्यादा पसंद करूंगा बजाय इसके कि अपना नाम बदलू। मैं एक यहूदी हूं।' वह वैसा ही अटल है जैसे कि दूसरे। लेकिन ईसाई या यहूदी दोनों मात्र शब्द हैं।
ज्या पाल सात्र ने जो शीर्षक अपनी आत्मकथा को दिया है वह है 'वईस' -शब्द। और यह संदर है क्योंकि जहां तक मन का संबंध है मन की सारी आत्मकथा शब्दों से बनी होती है और किसी दूसरी चीज से नहीं।
और पतंजलि कहते है कि इसके प्रति जाग्रत रहना पड़ता है क्योंकि ध्यान के मार्ग पर, शब्दों को पीछे छोड़ देना होता है। राष्ट्र, धर्म, शाख, भाषाएं पीछे छोड़ देनी पड़ती हैं और व्यक्ति को निर्दोष होना होता है, शब्दों से मुक्त। जब तुम शब्दों से मुक्त हो जाते हो तो कोई कल्पना नहीं रहेगी। और जब कोई कल्पना नहीं होती, तुम सत्य का सामना कर सकते हो। वरना तुम कल्पना किये चले जाओगे।
यदि तुम परमात्मा से मिलने आते हो, तुम्हें बिना किन्हीं शब्दों के उससे मिलना चाहिए। यदि तुम्हारे पास शब्द हैं, तो हो सकता है वह उस पर पूरा न उतरे या उससे मेल न खाये जो तुम्हारा उसके बारे में विचार है। हिंदू सोचते हैं कि भगवान के एक हजार हाथ हैं, और यदि भगवान केवल दो हाथों के साथ आ जाते हैं, तो हिंदू उन्हें अस्वीकार कर देगा, यह कह कर कि'तुम किसी तरह भगवान नहीं हो। तुम्हारे केवल दो हाथ हैं! भगवान के तो हजारों हाथ है। मुझे अपने दूसरे हाथ दिखाओ। केवल तभी मैं तुममें विश्वास कर सकता है।'
इसी पिछली सदी के एक अत्यंत सुंदर व्यक्ति थे शिरडी के साईंबाबा। साईंबाबा मुसलमान थे। या कोई निश्चित तौर पर नहीं जानता कि वे मुसलमान थे या हिंदू। लेकिन क्योंकि वे एक मसजिद में रहते थे, तो ऐसा माना जाता है कि वे मुसलमान थे। उनका एक मित्र और अनुयायी था, हिंदू अनुयायी, जो उन्हें प्रेम करता था, उनका आदर करता; जिसकी साईंबाबा में बहुत आस्था थी। हर रोज वह साईंबाबा के पास आ जाता, उनके दर्शन पाने को, और उनका दर्शन किये बिना वह जाता