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( ६३ ) नुभवगम्य आत्मतत्व करी शके नहि. ए कारणथी आत्मस्वरूप मूंझवे छे. तेथी ए त्याग करवा योग्य कही छे. पण मिथ्यात्वमोहनी ने मिश्रमोहनी करतां एमां धर्मनी रुचि वधे छे; तेथी आ गुणनो दर्शाव कर्यो छे. आंखोए झांख वले छे, त्यारे चस्मा पहेरवाथी पदार्थ ओलखी शकाय छे तेथी चस्मा सारां कहीए छीए, पण जेने झांख नथी ने पोतानी श्रांखे जोइ शके छे तेवुं चस्मावालो जोइ शके नहि तेथी वस्तुपणे तो एवी इच्छा रहे छे जे आंखेथी झांख मटी जाय ने चस्मानो त्याग थाय तो सारं; तेम ज्यां सुधी मिथ्यात्वमोहनी छे तेनी अपेक्षाएं सम्यक्त मोहनी सारी छे, परंतु सम्यक्तमोहनी ते पण मिथ्यात्वमोहनीना पुद्गल छे वास्ते ए सम्यक्तमोहनीना पुद्गल त्याग थाय त्यारे जीवने क्षायकसम्यक्त थाय छे अने त्यारे यथार्थ पूर्ण स्वरूप समजाय छे. कंइ पण शंका रहेती नथी अने सर्वज्ञे सूक्ष्म ज्ञान शास्त्रमां दर्शाव्युं छे ते सर्वे ज्ञानी महाराजना का प्रमाणे शेलाइथी समजी जाय छे, ने जेने सम्यक्तमोहनीनुं जोर छे तेनाथी बधुं बराबर समजी शकाय नहि, कांइक शंका पडे, सम्यक्त मोहनीवाला करतां मिश्रमोहनीवालाने वधारे शंकाओ पडे. ते करतां मिथ्यात्वमोहनीवालाने तो घणी ज शंका पडे. बधी वस्तु अवली ज समजाय. जे शुद्ध मार्ग ते अवलो ज भासन थाय. कंइक कंइक मिथ्या पुद्गल खसे, तेटलं तेटलं सहज कंइ खरूं भासे. माटे हरेक प्रकारे मिध्यात्वमोहनी, मिश्रमोहनी, सम्यक्तमोहनी नाश करवानो उद्यम करवो. ए त्रणे मोहनी सता, बंध ने उदयथी संपूर्ण रीते नाश थाय छे त्यारे क्षायकसमकित थाय छे. वली ए त्रण मोहनी नाश थाय छे, तेनी साथे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ पण नाश थाय छे. एटले क्षायकसमकित प्रगट था छे, ते माणस तद्भवे मुक्ति जाय छे; पण कदापि सम्यक्त पामतां पलां जो बीजी गतिनुं - नारकी, देवतानुं आयुष्य बांध्युं होय तो बीजी गतिमां जाय, त्यांथी मनुष्यमां आवने मुक्ति जाय, कदापि युमलियामां जाय तो युगलियामांथी देवतामां जइ त्यांथी मनुष्यमां आवी मुक्ति जाय एवी क
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