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वेपास्मां पेदाश थाय छे तेनी पाछल महेनत करवी पडे छे, तेनु दुःख मनमा आवतुं नथी. तेमज तमारा आत्माना सुखना रागी थशो, आत्मसुखमा मग्न थशो तो शरीर वेदना थशे ते वेदना मने थाय छे एम मनमा आवशे नहि. ज्यां सुधी शरीरना दुःखमा मन परोवाय छे, त्यां सुधी तमारो भाव तमारा आत्मभाव उपर तमारी दशा थइ नथी तेथी प्रश्न थाय छे के, ज्यारे तमारी दशानी सन्मुख थशो त्यारे तो तमारा मनमा आवशे जे में अज्ञानपणे जे जे कर्म बांध्यां छे, ते ते कर्म शरीरमां रहीने बांध्यां छे. ते शरीरे भोगव्या विना आस्मा निर्मल थवानो नथी, वली ए दुःखने दुःख मानीश तो पाछां नवां कर्म बंधाशे अने आत्मा मलीन थशे. शरीरना सुख दुखने मने सुख दुःख थाय छे एम मानवू ए महारा आत्मानो धर्म नथी. हु सच्चिदानंद छु. अनंत सुखनो धणी छु, अरागी छु, अद्वेषी छु, अछेदी छु, अभेदी छु, अगम कुं, अलख कुं, अगोचर छु, पूर्णानंद छु, सहजानंदी छु, अचल छु, अमर छु, अमल छु, अति इंद्रिय छु, अशरीरी छु, अविनाशी छु-आ महारं स्वरूप छे तो महारो आ आत्मा विनाश थवानो नथी. मरणथी शरीरनो विनाश थशे तेथी महारे शं करवा भय करवो ? शरीर तो सडण पडणं विध्वंसण धर्मवालुं छे ते विनाश थाय तेमां महारे शी चिंता करवी ? महारो आत्मा अमर छे, तेथी मरवानो नथी. माटे महारे मरणनो भय नथी. जेटलो जेटलो भय आवे, ते तो अज्ञानदशा छे ते महारे हवे अज्ञानदशाना- विचार शुं करवा करवा ? महारे महारा आत्मधर्ममां रहेQ तेज उत्तम छे. पूर्वभवोमां अज्ञानताए मरणनो भय को. अ ज्ञानताए मरण कर्या अने जीव भवचक्रमां भम्यो, अनेक प्रकारनी नरकादिकनी वेदना भोगवी. उंधे मस्तके गर्भावासनी वेदना भोगवी.
आ भवमा भाग्योदये वीतरागनो धर्म मल्यो जेथी में महारा आत्मानुं स्वरूप जाण्यु. हवे रोगादिकनी वेदनाथी हुँ बीतो नथी. रोगनां औषध अनेक प्रकारे करीश, पण जो कर्मनी स्थिति पाकी नथी, तो त्यां
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