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भ्रष्ट थाय; माटे प्रभुजीए निषेध कर्यो छे ते ज योग्य छे. एक आवश्यक भणे तो तेमां बहु प्रकारनुं ज्ञान थइ जाय वास्ते प्रभुनी श्रज्ञा बहार काम करवुं नहि, तेम सभा समक्ष तो में सूत्र वांची संभाव्यु नयी. ते तो ग्रंथोज वांचं छं ने ते तो आज्ञा शास्त्रमां छे; पण तेमां आज्ञा विरुद्धपणं एटलं छे जे गुरु पासे भणेलां वांचवां जोइए. पण पंचम कालना प्रभावे गुरुनी जोगवाइनी खामीने लीधे वांचबुं थाय छे ते प्रभु स्वीकारे तो सत्य छे. कारण जे उद्यम छोडवाथी अज्ञानता टलती नथी तेथी न चाल्ये करवुं पडे छे ने जे पुरुष गुरु पासे धारीने उपदेश विगेरे दे छे तेमने धन्य छे. म्हारो एवो भाग्योदय थशे ते दिवस धन्य मानीश. हाल पण कोइ कोइ उत्तम पुरुष मले छे तेमनी समीपमां जे जे धारणा थाय छे ते कल्याणकारी मानुं हुं ने ते शिवाय पोतानी मेले जे वांचुं हुं तेमां प्रभु आज्ञा विरुद्ध थतुं होय ते त्रिविध त्रिविधमिच्छामि दुक्वडं देउं डुं. वली योगशास्त्रनी टीकामां पाने १०७ मे सामायकना अतिचारमां कं छे ने शास्त्रनी गाथा मूकी छे ते गाथामां कहयुं छे जे न करवुं ते करतां अविधिये करवुं श्रेष्ठ छे, ए आधारे गुरु पासे वांच्या विना बेसी रहेवुं प्रमाद करवो ते करतां गुरु महाराजनी पात्रे वांचवा - नी इच्छा राखी योग म मले त्यां सुधी प्रमादमां काल न जाय ते सारु वांचं छं ने ते हितकारी मानुं लुं.
प्रश्नः - १३५ जैनमां लाखो रुपीया बीजा शुभ मार्गे वपराय छे तेवा ज्ञानमां नयी वपराता तेनुं शुं कारण !
उत्तरः -- जैनधर्मनुं मूल स्वरूप जाण्युं नथी ते पुरुषे एम समज. जैनमार्ग जाण्यो होय वा जैनधर्मनुं जाणपणुं थवानुं नजीकमां होय, वा थोडा भवमां पार पामवानो होय तेने तो अवश्य ज्ञान उपरज लक्ष थाय. कारण जे श्रात्मानुं केवलज्ञान अवरायुं छे ते प्रगट करवुं तेनुं मुख्य साधन श्रुतज्ञान छे. केमके केवलज्ञान पामतां पहलां क्षपकश्रेणी मांडे छे ते क्षपकश्रेणीमां प्रथम श्रुतज्ञानथी चिंतवन करे छे पछी अपूर्व भाव प्र
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