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( १२० ) शरीरने जड उत्तरः- - जे पुरुष स्वसत्ता परसत्तानुं ज्ञान पाम्या छे ते पुरुष करी जाणे छे. वली जाणे छे जे जे कर्म उदीरणा करी पण उदय थाय छे ने समभावथी भोगवतां नवां कर्म बंधातां नथी. पूर्वनां बांधेलां छे ते पण एक कर्मनी साथे बीजां शिथिल कर्म रह्यां छे, त्यारे समभाव आववाथी शिथिल कर्म तो प्रदेशथी भोगवइ जाय छे, त्यारे जे पुरुष कर्म खपाववा उदीरणा करे तेने तो अवश्य समभाव ज होय. माटे ते प्रदेश उदयना कर्मनी निर्जरा थाय छे. बीजां कर्म जे निकाचित होय तो ते पण शिथिल थाय. मात्र एक उत्कृष्ठ स्थानवर्त्ति निकाचित्त कर्म छे ते भोगव्या विना छूटतां नथी ने मध्यम स्थानवर्त्ति तो ज्ञान सहित तपथी नाश थाय छे. ए अधिकार विशेषावश्यकमां छे. तप करतां अशाता पण थाय तो तेनी पण निर्जरा थाय छे. वली शुभयोग रह्या छे. तेथी पुण्य पण बंधाय, परंतु पुनलिक सुखनी इच्छा नथी तेथी ते पुण्य पण मुक्तिने सहाय्यकारी थाय, पण मुक्तिने रोकनार नथी. माटे तपश्चर्या करवाथी मुख्यपणे निर्जरा थाय छे. तथा निर्जराना बार भेद तपश्चर्या ज कही छे. वली तीर्थकर महाराज तथा बीजा मुनि महाराजो पण घणी तपश्चर्या करी कर्म खपावी तद्भव मुक्ति गया छे. वास्ते जो तपश्चर्याथी पुण्यबंध थइ रोकत तो ए पुरुषोने पण रोकत ते रोक्या नथी, तेथी पण समजाय छे के निर्जरा ज मुख्यपणे थाय छे. ६४ प्रश्नः-आत्मतत्त्वनुं ज्ञान न होय तेने तपश्चर्या करतां शुं लाभ थाय? तथा चारित्रथी शुं लाभ ?
उत्तरः- आत्मज्ञान नथी होतुं पण श्रात्मज्ञानी पुरुषनी निश्राए रही वर्त्ते छे, ते पुरुष पण कर्म खपावी शके छे. जेम के मासतुस मुनिने एक पव पण मोठे चढ नहोतुं, पण गुरुनी आज्ञामां रही एक पदनो अभ्यास जारी राख्यो तो केवलज्ञान पाम्या. कारण जे गुरु महाराज निश्चय-व्यव हार, उत्सर्ग - अपवाद, द्रव्य--भाव ए सर्वेना जाण छे माटे शिष्यने थोडो बोध होय तोपण मुख्य मुख्य बाबत गुरु समजावी दे. एटले तेना आमानुं काम सहज थइ जाय छे. बीजा माणस साथे वादविवाद करी न
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