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धम्मकहा 8897
(१२) बहुश्रुत भक्ति भावना) बारह अंगों के ज्ञाता अथवा तात्कालीन सर्व श्रुत के ज्ञाता बहुश्रुतवन्त कहे जाते हैं। उनकी भक्ति और उनके अनुकूल प्रवर्तन करना यही बहुश्रुत भक्ति कहलाती है।
वर्धमान तीर्थंकर की परम्परा में अंगपूर्व ग्रन्थों के विज्ञाता ६८३ वर्ष पर्यन्त तक हुए हैं बाद में अंग पूों के एकदेश ज्ञाता धरसेन आचार्य हुए थे। जो द्वितीय आग्रायणी पूर्व के पंचम वस्तु के चतुर्थ महाकर्म प्राभृत के ज्ञाता थे, वह ऊर्जयंत पर्वत पर चन्द्र गुफा में स्थित थे। अपनी आयु को अल्प जानकर के पुष्पदन्त और भूतबलि मुनि को उन्होंने ज्ञान दिया। पुष्पदन्त आचार्य देव ने सत्प्ररूपणा सूत्रों की रचना की। पुनः भूतबलि आचार्य देव ने सत्प्ररूपणा सूत्रों के साथ ६००० श्लोक प्रमाण सूत्रों की रचना की जिसमें जीव स्थान क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व विचय, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड इन पाँच खण्डों की रचना की गई । तथा ३०,००० सूत्र प्रमाण महाबन्ध नाम का छठवां खण्ड रचा गया। इस प्रकार षट्खण्डागम सूत्रों की रचना करके उन्हें पुस्तकों में निबद्ध किया। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विध संघ की सन्निधि में उन शास्त्रों की महापूजा की गयी। उस समय से श्रुत पंचमी यह पर्व प्रसिद्ध हो गया। आचार्य धरसेन देव की कथा जिस प्रकार श्री धवला ग्रंथ में लिखी गई है उसी प्रकार से यहाँ संकलित है
सौराष्ट्र (गुजरात-काठियावाड) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चन्द्रगफा में रहने वाले, अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचन-वत्सल और आगे अंग-श्रुत का विच्छेद हो जाएगा इस प्रकार उत्पन्न हो गया है भय जिनको ऐसे उन धरसेनाचार्य ने महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु-सम्मेलन में संमिलित हुए दक्षिणापथ के (दक्षिण देश के निवासी) आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख में लिखे गये धरसेनाचार्य के वचनों की भलीभांति समझकर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नाना प्रकार की उज्वल और निर्मल विनय से विभूषित अंगवाले, शीलरूपी माला के धारक, गुरुओं द्वारा प्रेषण (भेजने) रूपी भोजन से तृप्त हुए, देश, कुल और जाति से शुद्ध, अर्थात् उत्तम देश, उत्तम कुल और उत्तम जाति में उत्पन्न हुए,समस्त कलाओं में पारंगत और तीन बार पूछा है आचार्यों से जिन्होंने, (अर्थात् आचार्यों से तीन बार आज्ञा लेकर) ऐसे दो साधुओं को आन्ध्र-देश में बहने वाली वेणानदी के तट से भेजा। मार्ग में उन दोनों साधुओं के आते समय, जो कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान सफेद वर्ण वाले हैं, जो समस्त लक्षणों से परिपूर्ण हैं, जिन्होंने आचार्य (धरसेन) की तीन प्रदक्षिणा दी हैं और जिनके अंग नम्रित होकर आचार्य के चरणों में पड़ गये हैं ऐसे दो बैलों को धरसेन भट्टारक ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में देखा। इस प्रकार के स्वप्न को देखकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने ' श्रुतदेवता जयवन्त हो' ऐसा वाक्य उच्चारण किया। उसी दिन दक्षिणापथ से भेजे हुए वे दोनों साधु धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। उसके बाद धरसेनार्य की पादवन्दना आदि कृतिकर्म कमके और दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने विनयपूर्वक धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि 'इस कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं।' उन दोनों साधुओं के इस प्रकार निवेदन करने पर अच्छा है, कल्याण हो' इस प्रकार कहकर धरसेन भट्टारक ने उन दोनों साधुओं को आश्वासन दिया। इसके बाद भगवान धरसेन ने विचार किया कि