________________
धम्मकहाee 109
(१६) प्रवचन वत्सलत्व भावना
जिनेन्द्र भगवान के प्रकृष्ट वचन प्रवचन हैं उनको जो मानता है व प्रवचन अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए धर्म में स्नेह रखने वाले कहे जाते हैं। उन प्रवचनों में गाय वत्स के निश्चल स्नेह होना प्रवचन वत्सलत्व भावना है। साधर्मी का अनादर नहीं करना वत्सलपना है। सभी में हित की भावना से प्रवृत्ति करना वत्सलत्व है। वत्सलत्व केवल परस्पर में बोलचाल ही नहीं है, और ना ही परस्पर में वस्तु के आदान-प्रदान का नाम वत्सलत्व है। अहिंसा का चित्त में प्रतिष्ठित हो जाने पर वत्सलत्व स्वयं ही प्रवाहित होता है। इसलिए सदैव मन-वचन-काय के द्वारा हिंसा न हो इस प्रकार से प्रवर्तन करना ही निश्चय से वत्सलत्व है। प्रशस्त भाव से किया गया राग गुणों की वृद्धि में कारण होता है। इस भावना में पूर्वोक्त सकल भावनाओं का समावेश देखा जाता है। विनय वात्सल्य, साधु-समाधिकरण, आचार्यादि परमेष्ठियों की भक्ति इत्यादि ये सभी एकार्थवाची हैं। सत्य ही है
"विनय और वत्सलत्व ये परस्पर में वस्तुत: एकार्थवाची हैं क्योंकि एक के बिना दूसरी चीज नहीं ठहरती है इसलिए दोनों का ही आलम्बन लेना चाहिए।"
विष्णुकुमारमुनि धर्म वत्सलत्व के भाव से ही मुनि संघ के उपसर्ग निवारण में प्रवृत्ति किए हैं। जो जीव एकेन्द्रिय आदि छह काय के जीवों की रक्षा दयाहृदय के साथ करता है वे जीव भी सभी जीवों में मैत्री भाव को धारण करते हैं । प्रेम, वत्सलत्व, मैत्री, प्रशस्त, राग, करुणा ये सभी एकार्थवाची हैं। इस प्रकार के वत्सल भाव से ही जो जीव पूर्वभव में अथवा उसी भव में तीर्थंकर नाम कर्म को बांधते है वे ही अन्य भव में अथवा उसी भव में जीवों को संसार के दुःख से उद्धार करने में सहज अकृत्रिम स्नेह के साथ प्रवृत्त होते हैं। विश्व कल्याण की भावना का फल ही तीर्थकर होना है। जैसे किसान सभी प्राणियों के हित की भावना से फसल उत्पन्न करता है उसी प्रकार से संसार में भ्रमण करते हुए सभी जीवों को आत्मसुख की प्राप्ति हो इस प्रकार की भावना ही प्रवचनवत्सलत्व है। जिस प्रकार से सभी जीवों में परस्पर में मैत्री होवे, आत्म कल्याण की रुचि होवे उसी प्रकार के उपदेश के द्वारा हिंसा, अहंकार, से रहित हृदय के द्वारा जीव रक्षा की तत्परता के द्वारा काय से जो निज और पर का हित करता है वह प्रवचन वत्सलत्व से युक्त होता है।
जगत के अंधकार को नष्ट करने के लिए जिनवाणी एक महा दीपक है। जिनवचनों को पढ़ने वाला आत्मस्वरूप के प्रकाश को अवश्य प्राप्त करता है।५॥ अ.यो.