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धम्मकहा 8899
शैलघन, भग्नघट, अहि (सर्प), चालनी, महिष, अवि (मेंढा), जाहक (जोंक),शुक, माटी और मशक के समान श्रोताओं को जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है, वह मूढ़ दृढ़ रूप से ऋद्धि आदि तीनों प्रकार के गारवों के आधीन होकर विषयों की लोलपता रूपी विष के वश से मूच्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव-वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है।
इस वचन के अनुसार यथाछन्द अर्थात् स्वच्छन्दतापूर्वक आचरण करने वाले श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय का बढ़ाने वाला है, ऐसा विचार कर, शुभ स्वज के देखने मात्र से ही यद्यपि धरसेन भट्टारक ने उन आये हुए दोनों साधओं के अन्तर अर्थात् विशेषता को जान लिया था, तो भी फिर से उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया, क्योंकि उत्तम प्रकार से ली गई परीक्षा हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है। इसके बाद धरसेनाचार्य ने उन दोनों साधुओं को दो विद्याएँ दीं। उनमें से एक अधिक अक्षरवाली थी
औरदूसरी हीन अक्षर वाली थी। दोनों को दो विद्याएं देकर कहा कि इनको षष्ठभक्त उपवास अर्थात् दो दिन के उपवास से सिद्ध करो। इसके बाद जब उनको विद्याएं सिद्ध हुई तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है। 'विकृतांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं होता है' इस प्रकार उन दोनों ने विचारक मन्त्र-संबन्धी व्याकरण-शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षरवाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षरवाली विद्या में से अक्षर निकालकर मन्त्र को पढ़ना अर्थात् सिद्ध करना प्रारम्भ किया। जिससे वे दोनों विद्या-देवताएं अपने स्वभाव और अपने सुन्दर रूप में स्थित दिखलाई पड़ीं। तदनन्तर भगवान् धरसेन के समक्ष, योग्य विनय-सहित उन दोनों के विद्या-सिद्धिसम्बन्धी समस्त वृत्तान्त के निवेदन करने पर बहुत अच्छा' इस प्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि,शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ का पढ़ना प्रारम्भ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान् से उन दोनों ने आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी के पूर्वाहकाल में ग्रन्थ समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया, इसलिए संतुष्ट हुए भूत जाति के व्यन्तर देवों ने उन दोनों उन दोनों में से एक ही पुष्प, बलि तथा शंख और तूर्य जाति के वाद्यविशेष के नाद से व्याप्त बड़ी भारी पूजा की। उसे देखकर धरसेन भट्टारक ने उनका भूतबलि' यह नाम रखा। तथा जिनकी भूतों ने पूजा की है और अस्त-व्यस्त दन्तपंक्तियों को दूर करके भूतो ने जिनके दांत समान कर दिये हैं ऐसे दूसरे का भी धरसेन भट्टारक ने 'पुष्पदन्त' नाम रखा।
तदनन्तर उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनों ने 'गुरु के वचन अर्थात् गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है' ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षाकाल बिताया। वर्षायोग को समाप्त कर और जिनपालित को देखकर (उसके साथ) पुष्पदन्त आचार्य तो वनवासि देश को चले गये और भूतबलि भट्टारक तमिल देश को चले गये। तदनन्तर पुष्पदन्त आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर, वीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर जिन्होंने जिनपालित को पढ़ाकर अनन्तर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा। तदनन्तर जिन्होंने अल्पायु हैं। इस प्रकार जिन्होंने जिनपालित से जान लिया है, अतएव महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का विच्छेद हो जायेगा इस प्रकार उत्पन्न हुई है बुद्धि जिनको ऐसे भगवान् भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रन्थ-रचना की। इसलिए इस खण्डसिद्धान्त की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदन्त आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं।