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शिक्षाप्रद कहानिया जमींदार ने खूब कोशिश की, खूब चश्मे बदले लेकिन, उसे उस नक्शे में कहीं भी न तो अपनी जमीन ही दिखाई दी और न अपना महल ही। और अन्त में थक-हारकर उसे कहना ही पड़ा कि- 'मेरी जमीन और महल तो इसमें दिखती ही नहीं।
यह सुनकर सुकरात बोले- 'इतनी छोटी-सी जमींदारी का इतना बड़ा घमण्ड जो कि नक्शे में दिखाई तक नहीं देती।
इतना सुनते ही जमींदार का घमण्ड रूपी नशा रफू-चक्कर हो गया। उसे वास्तविकता का भान हो गया। उसकी मनोदशा बदल गई और उसने हाथ जोड़ते हुए कहा कि- 'महात्मन! आपने मेरी बन्द आँखें खोल दीं। मैं बहुत बड़ी भ्रान्ति में जी रहा था। आज के बाद मैं कभी घमण्ड नहीं करूँगा।
३४. घमण्ड का फल
बहुत समय पहले की बात है बनारस के किसी गाँव में छह दार्शनिक रहते थे। वे सभी अपने-अपने विषयों में पारंगत थे। जिसके कारण उन सब को कुछ घमण्ड भी था कि हम तो शास्त्र के मर्मज्ञ हैं, ज्ञानी हैं। बाकी सब तो ऐसे ही हैं। वे क्या जाने शास्त्र की बात? कहने का मतलब यह है कि उन्हें अपने विषय ज्ञान पर बहुत घमण्ड था। संयोगवश एक बार उन्हें दूसरे किसी गाँव से एक शास्त्र संगोष्ठी में भाग लेने के लिए आमन्त्रण मिला। और वे सभी संगोष्ठी में भाग लेने के लिए तैयार हो गए। संगोष्ठी स्थल या गाँव गंगा नदी के दूसरी ओर था। इसलिए नदी पार करना आवश्यक था। अतः उन सब ने नाव से नदी पार करने का निर्णय किया और सवार हो गए एक नाव में। जैसे ही खेवइये ने नाव खेनी शुरु की तो पहला दार्शनिक खेवइए से बोला- 'अरे ओ! खेवइए कुछ न्यायदर्शन का भी अध्ययन किया है कभी या जीवन भर ऐसे ही नाव खेते रहे हो।'