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भूमिका
कहानियाँ बच्चों के लिए अवश्य लिखी जाती हैं, पर कहानियों को लिखना और समझना कोई बच्चों का खेल नहीं होता, उसके लिए बड़ी विद्वत्ता अपेक्षित होती है।
लिखने और समझने के लिए ही क्या, कहानी को कहने तक के लिए भी बड़ी कुशलता अपेक्षित होती है। यही कारण है कि कहानी को कई बार सुनने/पढ़ने/जानने के बाद भी उसे ठीक से कहने का कार्य सैकडों/हजारों में से कोई एक-दो लोग ही ठीक से कर पाते हैं। कहानी सुन/पढ़ सब लेते हैं, पर उसे ठीक से कहना सबके बस की बात नहीं होती। कहानी का एक-एक वाक्य ही नहीं, एक-एक शब्द भी बहुत सुगठित होता है। यदि उसे कहने में जरा-सी भी लापरवाही हो जाए, जरा-सा भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ या छोड़ दिया जाये तो वह बिगड़ जाती है, रस भी भंग हो जाता है, अतः उसे कहने में भी बड़ी सावध नी रखनी पड़ती है।
कहानी के लेखक को तो वास्तव में ही बहुत विद्वान् होना चाहिए, उसे 'सर्वशास्त्रकलाविद्' होना चाहिए। उसे वास्तु, ज्योतिष, अर्थ, समाज, राजनीति, आयुर्वेद, साहित्य, व्याकरण, मनोविज्ञान, जीवविज्ञान आदि लगभग सभी शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए, अन्यथा उसकी कहानियों में इनके विरुद्ध कथन आने से अनेक दोष उत्पन्न हो जायेंगे।
कहानी शिक्षा का भी सबसे सशक्त माध्यम है। प्राचीन काल में सभी शास्त्रों की शिक्षा कहानियों के माध्यम से दी जाती थी। बड़े से बड़े अज्ञानी को भी हमारे पूर्वजों ने कहानियों के माध्यम से सहजतापूर्वक समझाने में सफलता प्राप्त की है। 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' इसी के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। कहानी में जो रोचकता नाम का अद्भुत गुण होता