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शिक्षाप्रद कहानियां
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पिता को पाकर पुन: उसी तरह आनंदित हो गया। और मेले का आनंद लेने लगा।
इसी प्रकार, हम सब के जीवन में वैभवादि होते हुए भी यदि धर्म का सहारा, धर्म का आश्रय, धर्म की पकड़ छूट जाए तो कोई सुखी नहीं रह सकता उन वैभवादि की वस्तुओं में कोई सुख नहीं मिलेगा। जो वैभव पहले धर्म का सहारा लेने से सुख का कारण बना हुआ था, वही दुःख का कारण बन जाएगा। इसलिए हम सबको धर्म का आश्रय लेकर प्रतिदिन धर्म का चिंतन करना चाहिए कि चार पुरुषार्थों में धर्म को ही पहले क्यों रखा गया? अर्थ को क्यों नहीं रखा गया? काम को क्यों नहीं रखा गया? उत्तर स्वयं मिल जाएगा। अतः हम सबको यह अंतर आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए कि कहीं हमसे धर्म रूपी अंगुली तो नहीं छुट गयी। जिसके कारण आज हमारे जीवन में इतनी समस्या उत्पन्न हो गयी हो। जिनको सोच-सोचकर हम दिन-रात कुढ़ते रहते हैं। और हाँ, यहाँ एक बात और कि धर्म के नाम पर धर्म ही होना चाहिए, आडंबर नहीं। धर्म और आडंबर में जमीन-आसमान का अंतर होता है। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम धर्म के नाम पर आडंबर का सहारा न ले लें।
९७. मूर्ख कौन
बहुत समय पहले की बात है। राजस्थान प्रांत की जयपुर रियासत के एक राजा थे। उनके मंत्रिमंडल में विद्वान्, कवि, वैद्य, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, खाद्यमंत्री, वित्तमंत्री आदि सभी थे। एक दिन राजा को पता नहीं क्या सूझी कि उन्होंने आदेश दे दिया कि मंत्रिमंडल में एक मूर्ख की नियुक्ति की जाए। जिस भी सभासद ने यह बात सुनी तो वे सब बड़े आश्र्चय चकित हुए और आपस में काना - फूसी करने लगे कि ये राजा को क्या हो गया है? कहीं राजा का दिमाग तो नहीं चल गया है इस प्रकार की और भी बहुत सारी बातें वे आपस में करने लगे। लेकिन, इतनी हिम्मत किसी में नहीं थी कि वे राजा के आदेश के विपरीत बोल सकें। अतः पूरी रियासत में ढिढोरा पिटवा दिया गया कि राज दरबार में मूर्ख की एक नई पोस्ट सृजित की गयी है। इच्छुक व्यक्ति आवेदन करके इस पद को प्राप्त कर सकता है।