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शिक्षाप्रद कहानिया
निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु, दयां कुर्वन्ति साधवः। न हि संहरते ज्योत्स्ना, चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनः॥
अर्थात् सज्जन लोग गुणहीनों पर भी दया करते हैं। जैसे चन्द्रमा चाण्डाल के घर पर से अपनी चाँदनी को नहीं सिकोड़ता।
९२. संतोष और आनन्द का रहस्य
किसी गाँव में दो मित्र रहते थे। एक का नाम था विद्यानन्द तो दूसरे का नाम था धनपति। उनका बचपन एक साथ बीता, एक साथ खेले-कूदे, एक साथ पढ़े-लिखे। युवावस्था आने पर विद्यानन्द साधना के मार्ग पर अग्रसर होकर सन्त-महात्माओं के सम्पर्क में चला गया और धनपति ने अपना पैतृक व्यापार सम्भाल लिया। तथा अपनी घर-गृहस्थी बसा ली। एक सुन्दर सर्वगुण सम्पन्न धनी सेठ की पुत्री से उसका विवाह हुआ। कालक्रमानुसार उसके यहाँ पुत्र-पुत्रियों का जन्म हुआ धीरे-धीरे उन सबके भी विवाहादि सम्पन्न हुए। व्यापार भी खूब बढ़ा। कहने का मतलब यह है कि वह एक सम्पन्न और समृद्ध परिवार का मुखिया बन गया। लेकिन, वह था कि बडा अप्रसन्न-सा रहता ऐसा लगता जैसे यह बड़ा दु:खी है।
संयोगवश एक दिन गाँव मे एक संत का आगमन हुआ। सारा गाँव संत के दर्शन के लिए उमड़ पड़ा। सेठ धनपति भी संत के दर्शन के लिए गया। संत का बडा आदर-सत्कार हो रहा था। स्वागत गीत गाए जा रहे थे। धनपति बड़े गौर से संत को देखने लगा और मन ही मन कहने लगा कि 'हो न हो मैंने पहले भी इनको कहीं देखा है' जब उसने दिमाग पर जोर डाला तो उससे याद आ गया कि अरे! यह तो मेरा मित्र विद्यानन्द है। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। फिर क्या था धनपति की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। इतने वर्षों बाद मित्र को जो देखा और वो भी एक संत के रूप में।
विद्यानन्द अपने ज्ञानमार्ग में बहुत आगे बढ़ चुके थे। अतः सब समझ गये कि ऊपर से भले ही उसका मित्र खुश दिखाई दे रहा है,