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शिक्षाप्रद कहानिया स्वीकृति आवश्यक है। कुछ ही क्षण पहले एक युवराज की पत्नी ने उसे यौवन दान करने से मना कर दिया है। अतः पहले जाओ, उनकी अनुमति ले आओ।'
यह सुनकर कर्ण बोला- हे विप्रवर ! ऐसा कुछ नहीं है। मेरी बात मेरी पत्नी कभी नहीं टालती। मुझे पक्का विश्वास है कि वे इस महान् पुण्यकार्य के लिए कभी मना नहीं करेंगी। यह सुनकर ब्राह्मण देवता बोले- 'नहीं, कुछ भी हो। उनकी अनुमति आवश्यक है।'
जब ब्राह्मण देवता नहीं माने तो कर्ण अपनी पत्नी के पास गए और सारी बात उन्हें बता दी। इतना सुनते ही वह बोली- 'स्वामी यह जीवन क्षणभंगुर है, न जाने कब इसका अंत हो जाए। यदि जीते-जी नश्वर शरीर से किसी की भलाई हो जाए तो इसे देने मे तनिक भी देर नहीं करनी चाहिए। कहा भी जाता है
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन्, को न जीवति मानवः। परं परोपकारार्थं, यो जीवति स जीवति॥ परोपकारशून्यस्य धिङ्, मनुजस्य जीवितम्। धन्यास्ते पशवो येषां, चर्माप्युपकरोति वै॥ पशवोऽपि हि जीवन्ति, केवलं सोदरम्भराः। तस्यैव जीवितं श्लाघ्यं, यः परार्थे हि जीवति॥ रविश्चन्द्रो घना वृक्षाः, नदी गावश्च सज्जनाः। एते परोपकाराय, समुत्पन्ना स्वयम्भुवि॥
जो दूसरों की भलाई के लिए जीता है, वास्तव में जीना उसी का सफल है।
जो मनुष्य परोपकार नहीं करता उसके जीवन को धिक्कार है। ऐसे मनुष्य से तो पशु भी श्रेष्ठ हैं, जिनका चमड़ा भी परोपकार करता
__केवल अपना पेट भरने के लिए तो पशु भी जीते हैं, किन्तु जीवन उसी का प्रशंसनीय है, जो दूसरों की भलाई के लिए जीता है।