________________ प्राक् कथन - अध्यात्म योगी परमपूज्य श्री 108 वीरसागर मुनि महाराजजी का प्रतिदिन समयसार, श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्त्री आदि ग्रंथों का सूक्ष्म वाचन प्रवचन चलता था। . . प्रवचन में किसी मुमुक्षु श्रावक ने प्रश्न किया कि चतुर्थ गुणस्थान में आत्मानुभूति-शुद्धोपयोग या निश्चय सम्यक्त्व होता है या नहीं ? इस विषय में आगम प्रमाण वचनों की संकलनात्मक एक संक्षिप्त पुस्तक प्रकाशित होना नितांत आवश्यक है / ऐसी बार-बार प्रार्थना करने पर पूज्य महाराजजी द्वारा इस संकलनात्मक ग्रंथ को तैयार किया गया जिसका यह चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। ___इस पुस्तक में चारों अनुयोग के शास्त्रों का प्रमाण देकर प्रस्तुत विषय पर समीचीन यथार्थ प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। समयसार ग्रंथ केवल मुनियों के लिये ही उपयोगी है, ऐसा नहीं है। इस में परसमयरत-अप्रतिबुद्ध अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि को स्वसमयरत-प्रतिबुद्ध ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि बनने का उपाय बतलाया है / इसलिये यह ग्रंथ प्रत्येक मुमुक्षु भव्य जीव के लिये, चाहे वह मुनि हो या. श्रावक हो, सब के लिये दिव्य जीवनदृष्टि देनेवाला अपूर्व आध्यात्मिक ग्रंथ है। . . . 'समयसार ' अध्यात्म ग्रंथ होने से इस में गुणस्थानकृत भेद विवक्षा न रखकर ज्ञानी-अज्ञानी, स्वसमय-परसमय, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, प्रतिबुद्धअप्रतिबुद्ध इस प्रकार मुख्यता से दो विवक्षाओं को लेकर ही कथन किया गया ‘रागी सम्यग्दृष्टिः न भवति ' जिस को अणुमात्र भी राग है, अर्थात् राग में आत्मत्वबुद्धि-एकत्वबुद्धि है वह अज्ञानी है / सम्यग्दृष्टि नहीं है, ऐसा