________________ -- (51) माननामक परमात्मध्यानं घटते / तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते।" . इसका क्या अर्थ है ? ... उत्तर - मुनियों के ही परम ( उत्कृष्ट- सप्तमादि गुणस्थानवर्तियों का उत्कृष्ट-उत्कृष्टतर-उत्कृष्टतम ) आत्मध्यान ( स्वात्मानुभव ) होता है / तप्तलोह के गोले के समान गृहस्थोंको परम ( उत्कृष्ट सप्तमादि गुणस्थानवर्तियों का उत्कृष्ट-उत्कृष्टतर-उत्कृष्टतम) आत्मध्यान ( स्वानुभव) नहीं होता / . इससे जो-जो अव्रती गृहस्थको पारिणामिकभावरूप अपने आत्मा का ध्यान ( जघन्य स्वात्मानुभव' ) होता है, इस में बाधा नहीं आती। . 26) शंका - भा.पा.टी. 81 / 232 / 24 क्षोभः परीषहोपसर्ग निपाते चित्तस्य चलनता ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभविहीनः / एवं गुणविशिष्ट-आत्मानःशुध्दबुध्दैकस्वभावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानन्दरूपः परिणामो इत्युच्यते / स परिणामो गृहस्थानां न भवति / पञ्चसूनासहितत्वात् / इसका क्या अर्थ है ? उत्तर - परिषह और उपसर्ग के आने पर चित्त का चलना क्षोभ है। . उससे रहित मोहक्षोभविहीन है / ऐसे गुणों से विशिष्ट शुध्दबुध्द एकस्वभावी आत्मा का चिच्चमत्कारलक्षण चिदानन्द परिणाम धर्म कहलाता है / पंचसूनादोष सहित होने के कारण वह परिणाम (उत्कृष्ट परिणाम) गृहस्थोंको नही होता / इसमें यह दिखाया है कि उत्कृष्ट धर्मध्यान ( सकलसंयमी का धर्मध्यान ) और शुक्लध्यान, अव्रती गृहस्थ को नहीं होता; लेकिन जघन्य धर्मध्यान ( अपने निजात्मस्वभाव का चितवन- स्वानुभव ) अव्रती गृहस्थ को होता है। , देखो बृहव्यसंग्रह गाथा नं. 34 की टीका ( अथवा प्रवचनसार गाथा नं. 181 की टीका- तात्पर्यवृत्ति )