________________ - (29) .. अपने निजस्वभाव शुध्दात्मा (पारिणामिकभाव) से अन्य द्रव्यों में ( अपने आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद में अथवा अन्य द्रव्यों के द्रव्य-गुण पर्याय में ) शुभपरिणाम पुण्य है; और अपने निज स्वभाव शुध्दात्मा (पारिणामिकभाव ) से अन्य द्रव्यों में ( अपने आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद में अथवा अन्य द्रव्यों के द्रव्य-गुण-पर्याय में ) अशुभ परिणाम पाप है / और जो परिणाम निज स्तभाव शुध्दात्मा में ( पारिणामिकभाव में) रहता है याने पर में जाता नहीं है वह शुध्दोपयोग परिणाम उसी समय दुःख क्षय का (शुध्दात्मानुभव का परमानंद का) कारण है / इससे यह सिध्द होता है कि- शुभ और अशुभ भावों को असत् (अशुध्द) ध्यान कहते हैं और शुध्दोपयोग- शुध्दभाव को सत् (शुध्द) ध्यान कहते है। .. बुध्दिपूर्वक शुध्दनय के विषय का ( अपने निजस्वभाव की दृष्टि से / अखंड आत्मा का ) चितवन करने से शुध्दात्मा की उपलब्धि होती है / बुध्दिपूर्वक अशुध्दनय के विषय का चितवन करने से अशुध्दात्मा की उपलब्धि होती हैं। - देखो श्री कुंदकुंदाचार्यजी समयसार में लिखते हैं कि - सुध्दं तु वियाणंतो सुध्दं चेवप्पयं लहदि जीवो / जाणतो दु असुध्दं असुध्दमेवप्पयं लहइ / / 186 // - अर्थ - शुध्द आत्मा को ( स्वभाव को- पारिणामिकभाव को ) जानता हुआ जीव शुध्द ही आत्मा को पाता है, और अशुध्द आत्मा को जानता हुआ जीव अशुध्द आत्मा को पाता है। ____ अव्रती गृहस्थ भी अपने निज शुध्दात्म स्वभाव का चितवन करता है और उस को शुध्दात्मानुभव होने से संवरपूर्वक निर्जरा होती है। .. देखो सर्वार्थसिध्दि अध्याय 9, सूत्र 28 की टीका में लिखा है - ...... आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि // 28 // तदेतच्चर्विधं ध्यानं वैविध्यमश्नुते कुत: ? प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् /