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________________ 40 जैन योग : चित्त-समाधि तुलना किसी परोक्षज्ञान से करनी हो तो चक्षुर्ज्ञान से ही की जा सकती है। चक्षुर्ज्ञान साक्षात् ज्ञान का प्रतीक है / ) केवली के ज्ञान एवं दर्शन में अपना वैशिष्ट्य है जो उन्हें अन्य ज्ञानवृत्तियों से पृथक् प्रमाणित करता है / जगत्स्थितिवशादायुस्तुल्यं वेद्याद्यपि त्रयम् / करोत्यात्मसमुद्घाताद्योगशान्तिरतः परम् // 31 / / ___ केवली संसार-स्थित की चरमावस्था में आत्म-समुद्घात द्वारा वेदनादि कर्मत्रय (अर्थात् वेदनीय, नाम, गोत्र) को आयु के समकालीन बनाते हुए अयोगी गुणस्थान में सभी प्रकार के योगों की उपरति करते हैं / सर्वप्रपञ्चोपरतः शिवोऽनन्यपरायणः / सद्भावमात्रप्रज्ञप्तिनिरुपाख्योऽथ निर्वृतः // 32 // __साधक सर्वप्रकार के प्रपञ्चों से रहित, शिव, अनुपम, परमपद रूप निर्वाण की उपलब्धि करता है, जो सत्ता मात्र द्वारा उपलक्षित एवं अनिर्वचनीय है। मूलमध्यमककारिका XXV. 24 श्लोकांश 'सर्वोपलम्भोपशमः सर्वप्रपञ्चोपशमः शिवः' प्रस्तुत श्लोक के प्रथम चरम सर्वप्रपञ्चोपरतः शिवः' से तुलनीय है / प्रदीपध्मानवद्धयानं चेतनावद्विचेष्टितम् / ते विकल्पवशाद्भिन्ने भवनिर्वाणवर्त्मनि // 33 // संसार से मुक्ति की ओर ले जाने वाले ध्यान-मार्ग के दो विकल्प हैं। एक की तुलना प्रदीप के बुझने से और दूसरे की तुलना एकाग्रता युक्त सचेतन प्रवृत्ति से की गई ये दो विकल्प शुक्लध्यान के तृतीय एवं चतुर्थपाद से संबन्धित हैं। तृतीयपाद का संबन्ध जीवन-मुक्त से है, जो अपनी वाचिक एवं कायिक चेष्टाओं से जगत्-कल्याण में प्रवृत्ति करते हैं। चतुर्थपाद विशुद्ध निर्वाण मार्ग है, जो सर्वप्रकार की वाचिक एवं कायिक क्रियाओं से रहित होने के कारण सर्वथा प्रक्रिया रूप है। इसी की परिणति सिद्धावस्था है। जिनोपदेशदिङ्मात्रमितीदमुपदर्शितम् / यदवेत्य स्मृतिमतां विस्तरार्थो भविष्यति // 34 // ___ इस प्रकार जिनोपदिष्ट ध्यानमार्ग का दिशाप्रदर्शन मात्र किया गया है, जिसके सम्यक् अनुशीलन से प्रज्ञावान् व्यक्तियों को विस्तृत ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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