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________________ ध्यान-द्वात्रिंशिका तात्पर्य यह है कि साधक अपने शरीर और मन की यथावत् प्रेक्षा करता हुआ अतीत और अनागत का वर्तमान की तरह ही साक्षात्कार कर लेता है। किमत्राहं किमनहं किमनेकः किमेकधा। . विदुषां चोद्यतं चक्षुरत्रैव च विनिश्चयः // 3 // ज्ञानी पुरुष स्व एवं स्व से भिन्न, एक-प्रनेक तत्त्व को पुरुषार्थपूर्ण अर्थात् अप्रमत्त दृष्टि से देखता हुआ सत्य का सुदृढ़ निश्चय करता है। आयारो के प्रारम्भ में जो "इहमेसि नो सण्णा भवइ तंजहा-पुरात्थिमानो वा दिसायो आगो अहमसि, दाहिणालो वा दिसानो आगो अहमंसि ............ (I. 1. 1-3) एबफेसि जं जातं भवइ-अस्थि मे पाया प्रोववाइए। जो इमाओ दिसामो अगुदिलासो वा अणुसंवरइ, सवालो दिसानो सवाप्रो अणुदिसाम्रो जो आगो अगुसंचरइ सोहं। से पायावाई, लोगावाई, कम्मावाई किरयाचाई" (I. 1. 4-5 प्रादि सूत्र गुम्फित है, वह नोक का उद्गमस्थल प्रतीत होता है। मोहोऽहमस्मोत्याबन्धः शरीरज्ञानभक्तिषु / ममत्वविषयास्वादद्वषात्तस्मात्तु कर्मणः // 4 // शरीर एवं बुद्धि के विभिन्न पर्यायों से “मैं अभिन्न हूं"- इस अाग्रह को मोह या मिथ्यात्व कहा जाता है, जो ममत्व पूर्वक विषयों के प्रति आसक्ति या द्वेषरूपी कर्म से उत्पन्न होता है। (राग-द्वेष तथा मोह (मिथ्यात्व) बीजाकुर न्याय से एक दूसरे को पुष्ट करते रहते हैं / यह भवचक्र है, जो अहर्निश चलता रहता है।) जन्मकर्मविशेषेभ्यो दुःखापातस्तदेव वा। आजनिकमपश्यानामनात्मध्यक्तचक्षुषाम् // 5 // दुःख की उत्पत्ति जन्म-विशेष और कर्म-विशेष से होती है, अर्थात् जन्म-भेद और कर्म-भेद ही दुःख के कारण हैं। वह दुःख उन प्रज्ञानियों के लिए प्रवहमान रहता है, जो प्रात्म-ज्ञान के अव्यक्त रहने के कारण सत्य को देख नहीं पाते / पिपासाभ्युदयः सर्वो भवोपादानसाधनः / प्रदोषापायगमनादातरौद्र तु ते मते // 6 // सर्व प्रकार की तृष्णा का उद्भव भव और उपादान के कारण होता है। अर्थात् तृष्णा के मूल में भव और उपादान ही हैं। अविद्या या मिथ्यात्व से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव की उत्पत्ति होती है। प्रदुष्ट चित्त एवं हीन योनि ही पात और रौद्र-ध्यान के उद्भव स्थान हैं। __प्रस्तुत श्लोक में अविद्या-मिथ्यात्व-मोह का एवं श्लोक 5 में दुःख के हेतु का निरूपण किया गया है। यहाँ तृष्णा, भव और उपादान के माध्यम से उसी विषय का पुनर्व्याख्यान है। इसके उत्तरार्ध में अप्रशस्त ध्यान आर्त एवं रौद्र का उद्भवस्थान
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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