________________ जैन योग : चित्त-समाधि इन प्रयोगों के अतिरिक्त समवायांग-सूत्र18 में मानसिक, वाचिक एवं कायिक बत्तीस प्रशस्त-योगों का संग्रह उपलब्ध है, जिनकी विस्तृत व्याख्या आवश्यक-नियुक्ति में दी गई है / वे बत्तीस योग इस प्रकार हैं (1) आलोचना-गुरु के समक्ष अपने दोषों को निवेदन करना। (2) निरपलाप-शिष्यों के दोष अन्य किसी को न बताना / (3) आपत्ति-दृढ़धर्मता-आपत्तियों के समय धर्म में दृढ़ रहना / (4) अनिश्रितोपधान—अन्य किसी की सहायता के बिना तप करना / (5) शिक्षाशास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन / (6) निष्प्रतिकर्मता-शरीर-संस्कार न करना। (7) अज्ञातता-अपनी तपश्चर्या को गुप्त रखना। (8) अलोभता-लोभ रहित होना। * () तितिक्षा-परीषहों पर विजय पाना / (10) प्रार्जव-ऋजुता। (11) शुचि-सत्य और सयम का पालन / (12) सम्यग्दृष्टि—अविपरीत दृष्टि रखना। (13) समाधि-चित्त की एकाग्रता / (14) आचार-माया रहित आचरण / (15) विनय-विनयशीलता / (16) धृतिमति-धैर्यप्रधान बुद्धि / (17) संवेग—संसार-भय / (18) प्रणिधि-सुदृढ निश्चय / (16) सुविधि- सद्-अनुष्ठान / (20) संवर—प्रास्रव-निरोध / प्रात्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध / (22) सर्वकाम-विरक्तता—सब प्रकार की कामनारों से वैराग्य / (23) प्रत्याख्यान- पंच महाव्रत रूप मूलगुण-विषयक प्रत्यख्यान / (24) प्रत्याख्यान-स्वाध्यायादि उत्तरगुण-विषयक प्रत्याख्यान / (25) व्युत्सर्ग-द्रव्य-त्याग और भाव-त्याग / (26) अप्रमाद-प्रमाद रहित होना / / (27) लवालव-साध्वाचार का सतत पालन / (28) ध्यान-संवर-योग-ध्यानात्मक संवर-योग। (26) मारणान्तिक उदय-मारणान्तिक वेदना होने पर भी क्षोभ-रहित होना / (30) संग-परिज्ञा–प्रासक्ति का ज्ञान एवं प्रत्याख्यान / (31) प्रायश्चित्त-करण--प्रायश्चित्त करना /