________________ 68 ज्ञानानन्द श्रावकाचार अनुमति त्याग (दसवीं) प्रतिमा का स्वरूप आगे अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं - यहां (श्रावक) सावध कार्य (लौकिक कार्यों) का उपदेश देने का भी त्याग कर देता है / (अन्य द्वारा) किये सावध कार्य की अनुमोदना भी नहीं करता है। उद्दिष्ट त्याग (ग्यारहवीं) प्रतिमा का स्वरूप आगे उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं - यहां (वह श्रावक) बुलाने पर भी भोजन नहीं करता है / सहसा ही भोजन के लिये निकलता है / इस (प्रतिमा) के दो भेद हैं - (1) क्षुल्लक (2) ऐलक / क्षुल्लक तो कमंडल-पीछी, आधा दुपट्टा तथा लंगोट रखता है, स्पर्श शूद्र लोहे का पात्र रखता है / उच्च कुलीन पीतल आदि का पात्र रखते हैं / (स्पर्श शूद्र श्रावक) पांच अर्थात कुछ ही घरों से भोजन लेकर अन्तिम घर से पानी लेकर वहीं बैठकर अपने लोहे के पात्र में भोजन कर लेता है, तथा उच्च कुलीन एक ही घर में भोजन करता है तथा एकातरा (एक दिन भोजन करना एक दिन उपवास करना) भी करता है / ऐलक दुपट्टे को छोडकर एक कमंडल -पीछी तथा लंगोट ही रखता है, एवं अपने हाथ में ही आहार करता है / (केशलोंच) कराता है तथा लाल लंगोट रखता है, दूसरी लंगोट चाहिये तो ले लेता है / आहार के लिये (गृहस्थ) श्रावक के घर जाने पर उसके द्वार पर ऐसे शब्द कहता है - "अखै दान” (अक्षय)। नगर के बाहर मण्डप, मठ आदि में रहता है अथवा मुनियों के समीप वन में रहता है / मुनियों के चरणों की सेवा करता है तथा मुनियों के साथ ही विचरण करता है। ___ क्षुल्लक भी मुनियों के साथ ही विचरते हैं तथा संसार से उदासीन रहते हैं / ये अनेक शास्त्रों के पारगामी होते हैं तथा स्व-पर विचार के वेत्ता हैं, अतः स्वयं चिन्मूर्ति हुये शरीर से भिन्न स्वभाव में स्थित होते हैं / ऐलक अथवा अर्जिका तो नियम से क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण उच्च कुल