________________ 65 श्रावक-वर्णनाधिकार छह सब मिलाकर चार प्रकार के चवालीस (44) अन्तराय जानना / कोई अज्ञानी जीव रागभाव घटाने के लिये तथा अन्य जीवों की दया के लिये तो इन अन्तरायों को पाले नहीं तथा झूठे ही मृत, विष्टा आदि का नाम सुनने मात्र से अन्तराय माने तथा फिर झालर-घंटे बजाकर अंधे बहरे की भांति देखे को अनदेखा कर, सुने को अनसुना कर नाना प्रकार के गरिष्ट मेवे, पकवान, दही-दुग्ध, घी, सब्जी, खाद्य-अखाद्य पदार्थ विचार रहित हुआ तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा-अहिंसा के विचार के अयोग्य विधि से पूरा करके ही रहने वाले मनुष्य) की तरह (पेट भर जाने पर भी) अच्छा न लगने वाला होने पर भी ठसाठस पेट में भरता है, प्रसन्न होकर स्वाद लेता है, तथा भिखारी की तरह श्रावक जैनियों की खुशामद कर मांग-मांग कर खाता है, जैसे कोई पुरुष सूक्ष्म-स्थावर जीवों की तो रक्षा करे पर बडे-बडे त्रस जीवों को आंख बंद करके अखण्ड ही निगलता हो तथा फिर कहे कि मैं सूक्ष्म जीवों की भी दया पालता हूँ। वह तो ऐसा काम करके वह बेचारे गरीब भोले जीवों के धर्म तथा लौकिक धन को ठगता है तथा (उन्हें) अपने साथ मोह-मंत्र से वश कर कुगति में ले जाता है / जैसे महाकालेश्वर देव तथा पर्वत नाम के ब्राह्मण ने मायामयी इन्द्रजाल के सदृश्य चमत्कार दिखाकर राजा सगर के वंश को यज्ञ में होम कर नरक में भेजा तथा मुंह से कहा कि यज्ञ में होमे प्राणी बैकुंठ में जाते हैं / ऐसे आचरण को कुलिंगियों का (आचरण) जानना। ___ आगे (श्रावक को) सात स्थानों पर मौन रहना चाहिये, उनके स्वरूप का कथन करते हैं - (1) देवपूजा में (2) सामायिक में (3) स्नान में (4) भोजन करते समय (5) कुशील में (6) लघु-दीर्घ शंका के समय अथवा मल-मूत्र क्षेपण में (7) वमन में। इन सात (समय) मौन के धारक पुरुष हाथ से अथवा मुख से संकेत भी नहीं करते न हुंकार करते हैं /